Sunday, October 24, 2010

मेरी १०१ कवितायेँ

41

कैसे कैसे लोग बेशर्मी से
उनका जिक्र करते हैं
जबसे उनको
शरमाना आ गया

आँख क्यूँ अब उनसे
हटती ही नहीं
जबसे उनको
नज़रें झुकाना आ गया

सरे-शाम लो
रात हुई जाती है
उनको ज़ुल्फ़ लहराना
आ गया

समंदर की गहराई है
उनकी आँखों में
अब उन्हें भी राज़ छुपाना
आ गया

मेरा महबूब उतर रहा है
डोली से
मेरे घर में भी मौसम सुहाना
आ गया

४२

लाशों की कमी न रहेगी
कब्रिस्तान और शमशान में
मेरा शहर जब तक फ़र्क करेगा
इंसान और इंसान में

बेपनाह दौलत परदेश में छोड़
लौट आये हैं लोग
फ़र्क कुछ कुछ मालूम दे गया है
उन्हें घर और मकान में

गाँव छोड़ चले तो आये तुम
एक बार बाज़ार से गुजरे तो जानोगे
सब कुछ ही तो बिकाऊ है
मेरे शहर की दूकान में

उड़ने वाले तुम पहले नहीं
शख्स ऐ दोस्त !
परिंदे कुछ पुराने
हमें भी जानते हैं
इस आसमान में


४३

जहाँ रहती हों आबादियाँ
खंडहरों में
मुझे ले चलो उन्हीं हसीन
शहरों में

जिस्म की क़ैद से
मैं निजात पा जाता
मेरे शहर में तो ख्यालात भी रहते हैं
पहरों में

दरिया को आज फिर
किसी सैलाब का डर है
भूखी माँ कल बच्चों सहित डूबी थी
लहरों में

लोग कहते हैं
वो जनम से अंधा था
फिर रात रात किसे ढूँढता था वो भीड़ के
चेहरों में

४४

एक पूरी पीढ़ी ही
अनपढ़ रह गयी
कंप्यूटर ले कर देर से आये
नेताजी मेरे शहर में

भ्रष्टाचार की आग
फैली है सब ओर
फायर ब्रिगेड कौन बुलाए
सन सेंतालीस से खराब हैं
टेलीफोन मेरे शहर में

अभी नेताजी अफ्रीका समस्या
उठा रहे हैं अमरीका में
हो रहे हैं तो होते रहें
क़त्ल हरिजन मेरे शहर में

बाज़ार भाव बहुत नरम है
गुर्दा देखेंगे या खून लेंगे
आदमी की भारी ‘सेल’
लगी है मेरे शहर में

४५

देवदार के वृक्ष तले
निशा जब पलक खोले
प्रिय आकार मिलना
दूर पपीहा जा बोले

जब हो संध्या उदास उदास
कोई न हो नयन वातायन के पास
प्रिय आकर मिलना
जब टूट जाये अपनों का विश्वास

समाज की कोई रिवाज जब तुम्हें घेरे
अग्नि बाध्य करे लेने को फेरे
प्रिय आकार मिलना
जब दूर हों मुक्ति के सवेरे

व्यर्थ लगे जब यौवनावकाश
क्रूर काल देने लगे अपना आभास
प्रिय आकर मिलना
जब श्रृंगार करे तुम्हारा उपहास

बुझ चुके हों जब सारे दीप
बिछुड जाये मोती से सीप
प्रिय आकार मिलना
जब प्रलय हो समीप

४६

तुम चले आओ खत पाते ही
जहाँ तक बादल हैं
रास्ता साफ़ है
और आज धूप भी नहीं

समुन्द्र हिलोरें ले रहा
चांदनी से मिलने को
दूर बस एक अकेली नाव है
और आज धूप भी नहीं

कोयल की कूक है
नए फूल और खुश बहार है
कुछ मेरा भी खुशी पर हक है
और आज धूप भी नहीं

तमन्ना जवान है
दिल पे काबू
न कल था न आज
और फिर आज तो धूप भी नहीं


४७

क़ब्रिस्ताँ कुछ पहचाना
सा लगता है
कहीं यह मेरा
अपना शहर तो नहीं

साकी ने आज मुझे भी
दस्ते-नाज़ुक से पिलाई है
कोई देखे ज़रा
इसमें ज़हर तो नहीं

आहें, चीख-पुकार
हर सू आलमे बदहवास
ठहरो याद कर लूँ यह मेरे
महबूब की रहगुजर तो नहीं

यह क्यूँ दुश्मन भी मेरी मिजाजपुर्सी को
चले आये हैं आज
कल सुबह तुम आ रही हो
कहीं इन्हें ये खबर तो नहीं

तुम्हारा खत भी गायब है
मेरा क़ासिद भी
ज़रा देखो तो सही वह मेरे
रकीब के घर तो नहीं


४८

ठण्ड से मर गया कल रात
एक भिखारी
कम्बल ले कर देर से आये
नेताजी मेरे शहर में

अंधे कुँए में फिर एक लाश मिली है
रोटी का ब्याज
शरीर से लेते हैं
महाजन मेरे शहर में

कुछ ज्यादा ही
डरे डरे हैं लोग
पुलिस मना रही है
‘शालीनता सप्ताह’ मेरे शहर में

भयानक चेहरों को देख
नाहक ही डर गए लोग
हर चेहरे पर दूसरा चेहरा
लाजिमी है मेरे शहर में

४९

वो आये ही जाते हैं
ऐ उम्मीद न जा
यूँ छोड़ कर.. ठहर
अभी कुछ देर और

शाम का वादा था,रात जाने को है
वो आते ही होंगे, ऐ शमां
जलो मेरे साथ
अभी कुछ देर और

मैं तेरी जुदाई के ख्याल से
हूँ अश्कबार
रो लेने दो
अभी कुछ देर और

एक उम्र के इंतज़ार के बाद आया है
न जाने फिर कब आना हो तेरा
ऐ सावन बरस
अभी कुछ देर और

खामोश, गुमसुम देख
मुहब्बत का गुमाँ होता है
यूँ ही रहो खफ़ा
अभी कुछ दे और

जुदाई की शब है, फिर मिले न मिले
ज़ज्ब कर लूँ हर अदा
याद कर लूँ हर वाकया
बैठी रहो मेरे पहलू में
अभी कुछ देर और


५०

प्रिय भूल न जाना
किये थे जब
हरी दूब पर बैठ
हमने कुछ प्रण

पूछेगा प्रश्न बीता हुआ कल
आनेवाले कल से
मांगेगी उत्तर हर लहर
उठते गिरते झरने की कलकल से

क्या दोगे तुम तब ?
इसलिए कहता हूँ
बिसरा न देना मेरा नाम
अपने स्मृति पटल से
रही एक ही जान
चाहे रहे हों दो तन
प्रिय भूल न जाना

कोई आश्चर्य नहीं
उन स्थितियों में
हम-तुम दोनों बदल जाएँ
अपनी परिस्थितियों में
संभव है तुम मग्न हो जाओ
विजयोल्लास में
या दूरी बन जाये बैरिन
हमारे मिलाप में

लेकिन बैठे होगे
जब तुम अवकाश में
मुझे विश्वास है
मेरी याद मेघ बनके घिर आयेगी
तम्हारे हृदयाकाश में
हाय कैसे कट पाएंगे वे दिन
प्रिय भूल न जाना ..
माना भौतिकता के दायरे में
जिंदगी बंधी है
किन्तु सुना है मैंने यह भी
ह्रदय से ह्रदय की बंधी है

होने दो अपने ह्रदय पर
मेरी स्मृति का हिमपात
रुको ! मत हटाओ
मेरी यादों के हिमकण
क्या तुम भूल गए वो क्षण
किये थे जब हरी दूब पर बैठ
हमने कुछ क्षण

1 comment:

  1. going through your poems postd on 24th oct, some of them are realy very heart touching,like,
    Lashon ki kami na rahegi.............mera shahar jab tak fark karega insan aur insan mein.
    And, mere shahar mein.........
    Wahin- Saki ne aaj mujhe bhi daste nazuk........
    ............isme zahar to nahin, and
    yeh kyun dushman bhi meri mijajpursi ko......inhe ye khabar to nahin , has a different flavour altogather.
    Thanx, v cud enjoy different flavours of ur poetry.

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