Friday, November 11, 2016

तुम मेरे संग हो
काश: ये सफर
कभी खत्म न हो।
मंजिलों की जुस्तजू किसे ?
जब मंजिल खुद
मेरे संग हो।

Tuesday, November 1, 2016

तमाम उम्र इक इसी ख्वाब ने परीशां रखा 
कभी गाड़ी छूट गई, कभी रस्ता भूल गये

अक्सर मैं उदास हो जाता हूं

अक्सर मैं उदास हो जाता हूं
चिंतित हो उठता हूं
जब बच्चे कहते हैं “मैं रात को लेट आऊंगा”
या फिर “आज रात मैं दोस्त के घर ही रुक जाऊंगा”
मैं रोकने की स्थिति में नहीं हूं
वो बड़े हो गये हैं, कमाते हैं, इनस्टाग्राम, जी.पी.एस.
मैसेंजर, लिंकडिन, स्काइप और न जाने क्या क्या चलाते हैं
जब मन करता है जहां मन करता है आते – जाते हैं
पर मैं क्या करूं मैं फिर भी चिंतित हो उठता हूं
जब वे कहते हैं “आज रात लेट आऊंगा”
या फिर “देखता हूं दोस्त के घर ही रुक जाऊंगा”
ये महज़ मेरी एक्जायटी है या कहीं ये तो नहीं कि
मैं बूढ़ा हो रहा हूं.... अपने दिन भूल रहा हूं
जब लेट होने की हालत मैं पिताजी को बस स्टॉप
पर ही टहलता हुआ देखता था
देखता था माता जी अभी भी जगी हुई होती थीं
“बस नींद नहीं आ रही थी” कहती हुईं
पीढ़ी दर पीढ़ी हम सब इस स्थिति को जीने
और इस स्थिति का चक्रवृद्धि ब्याज सहित
सामना करने को अभिशप्त हैं ये हमारी नियति है