Thursday, October 14, 2010

मेरी १०१ कवितायेँ

(15)

हमने लिखे थे जो तुम्हारे नाम खत
सिवा तुम्हारे शहर में सबने पढ़े वो तमाम खत

हर सफा था खास, हरेक हर्फ़ में थी हमारी खुशबू
फिर कैसे हो गए हमारे वो बेनाम खत

दिले नाकाम को क़ासिद ने समझाया
“उम्र भर इक छोटे से जवाब को तरसते रहे
मियाँ किस जुबां में लिखते हो तुम खत”

वो बरसों लेने से इनकार करते रहे
हम बरसों लिखते रहे खूने दिल से खत

मैं शब-ए-जुदाई सुकून से मर सका
वो हौले से बोले “भला कोई
अपनों को भी लिखता है यूँ खुले आम खत”


(१६)

तालीमयाफ्ता तो बहुत है मेरा महबूब
सीखनी आंसुओं की जुबां अभी बाकी है

ऐ सात समंदर के सैलानी,सफर खत्म कहाँ
मेरी आँखों में देख, आसमां अभी बाकी है

आपने जो ज़ख्म दिए,मुमकिन नहीं एक जनम में भरें
नज़दीक से देख, पिछले निशाँ अभी बाकी हैं

तेरे ज़ुल्मों ने मुझे इस क़दर मज़बूत कर दिया
तुम किस्सा तमाम समझ भूले थे
पर देख ये सख्त जान अभी बाकी है

ये वादा रहा तेरी महफ़िल से चले जायेंगे
सामान सब बंध गया
तेरी एक मुस्कान अभी बाकी है


(१७)

मैं तो खामोश चला था सरे राह
जिंदगी के हर रास्ते उसका घर निकला

दो बूँद का प्यासा था वो
उसकी हर बूँद में सागर निकला

मेरे बच निकलने की कोई तदबीर न थी
शहर के हर मोड़ पे सितमगर निकला

ये जानते तो जान से क्यूँ जाते
वो तबस्सुम महज़ उसकी आदत निकला

उनसे नज़र मिली फिर होश न रहा
बस इतना याद है मेरा सर झुका था
जब उसका खंज़र निकला

(१८)

यूँ तो इन्साफ मेरे साथ था
पर मुंसिफ तुम्हारा निकला

हम ये किस शहर में आ गए
दीवाना हर शख्स तुम्हारा निकला

मेरी चाहत ने उनमें रंग भर दिए हज़ार
मुझसे मिलके आईना देखा
वो भी दीवाना तुम्हारा निकला

मैं तो वसीयत में खुद को
खतावार लिख मरा हूँ
अब क्या फ़र्क भले कुसूर
तुम्हारा निकला


(१९)

तेरी पेशानी चूम के कभी
मैंने खुदा से दुआ की थी
आज तुझे खुश देख
अपनी दुआ में यकीं आ गया, यकीं आ गया

फ़लक पे सितारे टिमटिमाते हैं अज़ल से
महफ़िल तो तेरे आने से रोशनजदा हुई
सब कहने लगे देखि महज़बीं आ गया
महज़बीं आ गया

गुलशनपरस्त तो हम भी कम न थे
पर कलियों की रुसवाई देखी न गयी
जिस घड़ी गुलशन में बेनकाब
वो पर्दानशीं आ गया,पर्दानशीं आ गया

वो हसीं है खुदा उसकी
जवानी को बरकत दे
मैंने जब जहां बुलाया
मेरा जान-ऐ-जां वहीँ आ गया,वहीँ आ गया

(२०)

जिंदगी के तमाम अजूबों से
हँस कर गुजर गए
जब से हैरत में डालने का
वादा कर गया कोई

कुल शहर से नज़रें
चुरा रहे हैं हम
जब से ख्वाब में आने का
वादा कर गया कोई

ताउम्र समंदर से खाली हाथ
लौटते रहे
नसीब देखिये किनारे पे मेरे नाम
मोती रख गया कोई

हम तो हिसाब-किताब में
वैसे ही कमज़र्फ थे
रोज रात तारों की गिनती
क्यों मेरे नाम कर गया कोई

जाहिर है वो मुझसे खफा हैं
तू भी उनका पर्दा रखना ऐ क़ासिद
कहना “कल हौले से ले उनका नाम
मर गया कोई “

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