Sunday, October 24, 2010

मेरी १०१ कवितायेँ

41

कैसे कैसे लोग बेशर्मी से
उनका जिक्र करते हैं
जबसे उनको
शरमाना आ गया

आँख क्यूँ अब उनसे
हटती ही नहीं
जबसे उनको
नज़रें झुकाना आ गया

सरे-शाम लो
रात हुई जाती है
उनको ज़ुल्फ़ लहराना
आ गया

समंदर की गहराई है
उनकी आँखों में
अब उन्हें भी राज़ छुपाना
आ गया

मेरा महबूब उतर रहा है
डोली से
मेरे घर में भी मौसम सुहाना
आ गया

४२

लाशों की कमी न रहेगी
कब्रिस्तान और शमशान में
मेरा शहर जब तक फ़र्क करेगा
इंसान और इंसान में

बेपनाह दौलत परदेश में छोड़
लौट आये हैं लोग
फ़र्क कुछ कुछ मालूम दे गया है
उन्हें घर और मकान में

गाँव छोड़ चले तो आये तुम
एक बार बाज़ार से गुजरे तो जानोगे
सब कुछ ही तो बिकाऊ है
मेरे शहर की दूकान में

उड़ने वाले तुम पहले नहीं
शख्स ऐ दोस्त !
परिंदे कुछ पुराने
हमें भी जानते हैं
इस आसमान में


४३

जहाँ रहती हों आबादियाँ
खंडहरों में
मुझे ले चलो उन्हीं हसीन
शहरों में

जिस्म की क़ैद से
मैं निजात पा जाता
मेरे शहर में तो ख्यालात भी रहते हैं
पहरों में

दरिया को आज फिर
किसी सैलाब का डर है
भूखी माँ कल बच्चों सहित डूबी थी
लहरों में

लोग कहते हैं
वो जनम से अंधा था
फिर रात रात किसे ढूँढता था वो भीड़ के
चेहरों में

४४

एक पूरी पीढ़ी ही
अनपढ़ रह गयी
कंप्यूटर ले कर देर से आये
नेताजी मेरे शहर में

भ्रष्टाचार की आग
फैली है सब ओर
फायर ब्रिगेड कौन बुलाए
सन सेंतालीस से खराब हैं
टेलीफोन मेरे शहर में

अभी नेताजी अफ्रीका समस्या
उठा रहे हैं अमरीका में
हो रहे हैं तो होते रहें
क़त्ल हरिजन मेरे शहर में

बाज़ार भाव बहुत नरम है
गुर्दा देखेंगे या खून लेंगे
आदमी की भारी ‘सेल’
लगी है मेरे शहर में

४५

देवदार के वृक्ष तले
निशा जब पलक खोले
प्रिय आकार मिलना
दूर पपीहा जा बोले

जब हो संध्या उदास उदास
कोई न हो नयन वातायन के पास
प्रिय आकर मिलना
जब टूट जाये अपनों का विश्वास

समाज की कोई रिवाज जब तुम्हें घेरे
अग्नि बाध्य करे लेने को फेरे
प्रिय आकार मिलना
जब दूर हों मुक्ति के सवेरे

व्यर्थ लगे जब यौवनावकाश
क्रूर काल देने लगे अपना आभास
प्रिय आकर मिलना
जब श्रृंगार करे तुम्हारा उपहास

बुझ चुके हों जब सारे दीप
बिछुड जाये मोती से सीप
प्रिय आकार मिलना
जब प्रलय हो समीप

४६

तुम चले आओ खत पाते ही
जहाँ तक बादल हैं
रास्ता साफ़ है
और आज धूप भी नहीं

समुन्द्र हिलोरें ले रहा
चांदनी से मिलने को
दूर बस एक अकेली नाव है
और आज धूप भी नहीं

कोयल की कूक है
नए फूल और खुश बहार है
कुछ मेरा भी खुशी पर हक है
और आज धूप भी नहीं

तमन्ना जवान है
दिल पे काबू
न कल था न आज
और फिर आज तो धूप भी नहीं


४७

क़ब्रिस्ताँ कुछ पहचाना
सा लगता है
कहीं यह मेरा
अपना शहर तो नहीं

साकी ने आज मुझे भी
दस्ते-नाज़ुक से पिलाई है
कोई देखे ज़रा
इसमें ज़हर तो नहीं

आहें, चीख-पुकार
हर सू आलमे बदहवास
ठहरो याद कर लूँ यह मेरे
महबूब की रहगुजर तो नहीं

यह क्यूँ दुश्मन भी मेरी मिजाजपुर्सी को
चले आये हैं आज
कल सुबह तुम आ रही हो
कहीं इन्हें ये खबर तो नहीं

तुम्हारा खत भी गायब है
मेरा क़ासिद भी
ज़रा देखो तो सही वह मेरे
रकीब के घर तो नहीं


४८

ठण्ड से मर गया कल रात
एक भिखारी
कम्बल ले कर देर से आये
नेताजी मेरे शहर में

अंधे कुँए में फिर एक लाश मिली है
रोटी का ब्याज
शरीर से लेते हैं
महाजन मेरे शहर में

कुछ ज्यादा ही
डरे डरे हैं लोग
पुलिस मना रही है
‘शालीनता सप्ताह’ मेरे शहर में

भयानक चेहरों को देख
नाहक ही डर गए लोग
हर चेहरे पर दूसरा चेहरा
लाजिमी है मेरे शहर में

४९

वो आये ही जाते हैं
ऐ उम्मीद न जा
यूँ छोड़ कर.. ठहर
अभी कुछ देर और

शाम का वादा था,रात जाने को है
वो आते ही होंगे, ऐ शमां
जलो मेरे साथ
अभी कुछ देर और

मैं तेरी जुदाई के ख्याल से
हूँ अश्कबार
रो लेने दो
अभी कुछ देर और

एक उम्र के इंतज़ार के बाद आया है
न जाने फिर कब आना हो तेरा
ऐ सावन बरस
अभी कुछ देर और

खामोश, गुमसुम देख
मुहब्बत का गुमाँ होता है
यूँ ही रहो खफ़ा
अभी कुछ दे और

जुदाई की शब है, फिर मिले न मिले
ज़ज्ब कर लूँ हर अदा
याद कर लूँ हर वाकया
बैठी रहो मेरे पहलू में
अभी कुछ देर और


५०

प्रिय भूल न जाना
किये थे जब
हरी दूब पर बैठ
हमने कुछ प्रण

पूछेगा प्रश्न बीता हुआ कल
आनेवाले कल से
मांगेगी उत्तर हर लहर
उठते गिरते झरने की कलकल से

क्या दोगे तुम तब ?
इसलिए कहता हूँ
बिसरा न देना मेरा नाम
अपने स्मृति पटल से
रही एक ही जान
चाहे रहे हों दो तन
प्रिय भूल न जाना

कोई आश्चर्य नहीं
उन स्थितियों में
हम-तुम दोनों बदल जाएँ
अपनी परिस्थितियों में
संभव है तुम मग्न हो जाओ
विजयोल्लास में
या दूरी बन जाये बैरिन
हमारे मिलाप में

लेकिन बैठे होगे
जब तुम अवकाश में
मुझे विश्वास है
मेरी याद मेघ बनके घिर आयेगी
तम्हारे हृदयाकाश में
हाय कैसे कट पाएंगे वे दिन
प्रिय भूल न जाना ..
माना भौतिकता के दायरे में
जिंदगी बंधी है
किन्तु सुना है मैंने यह भी
ह्रदय से ह्रदय की बंधी है

होने दो अपने ह्रदय पर
मेरी स्मृति का हिमपात
रुको ! मत हटाओ
मेरी यादों के हिमकण
क्या तुम भूल गए वो क्षण
किये थे जब हरी दूब पर बैठ
हमने कुछ क्षण

Saturday, October 23, 2010

मेरी १०१ कवितायेँ

३१
एक बात तय हो गयी
तुम से दूर रह कर
हम जी नहीं सकते
तुम से दूर रह कर

सब्र का इम्तिहां नहीं
ये तो और क्या है
हम रो नहीं सकते
तुम से दूर रह कर

वो शख्स किस मिट्टी के थे
जिन के घाव वक्त ने भर दिए
हम तो और भी छलनी हुए
तुम से दूर रह कर

देखा मुझे तो खास दोस्त भी
पहचान नहीं पाए
कितने बदल गए हम
तुम से दूर रह कर

अब शहर भर में बदनाम हूँ
तो सुकून है दिल को
मुहब्बत में मुझे भी कुछ हासिल हुआ
तुम से दूर रह कर


३२
लाख बुराई सही पर
आदमी अच्छा था
यह अहसास
छोड़ जाऊंगा

मशहूर हैं तेरी दुनियां में लोग
दिमागो दौलत के दम पर
मैं तो बस अपने ज़ज्बात
छोड़ जाऊंगा

बरसों तक भुला न सकोगे
दोस्त खुशबू कुछ ऐसी
आस-पास छोड़ जाऊंगा

खुदारा मुझ को यूँ न सताओ
बार बार दूर जा कर
क्या पता कब तुमको अश्कबार
छोड़ जाऊंगा.


३३

तेरी याद, तेरा ख्याल
तेरी उल्फत, तेरा गम लिए
इस दुनियां में रहे
गो कि बेशुमार दौलत
और लुटेरों की बस्ती में रहे

माल, असबाब,इज्जत,शोहरत
सब आसां थी मगर
हम तुम से मिलने की खातिर
तमाम उम्र सफर में रहे


३४

इक शख्स अक्सर
मेरे ख्वाब में आये है
मैं तो अनजान हूँ

घबराया,सहमा,ढूँढता फिरता है
न जाने किस दरबदर
बोलता कुछ नहीं बस
दिल के ज़ख्म दिखाए है

ये माहौल, ये बंदिशें
ये सावन, ये बारिशें
तुमसे भी कुछ कहती हैं
या बस मुझे ही तुम्हारी याद सताए है

लोग रिश्ते बदल रहे हैं,लिबासों की तरह
तू न जाने किस दौर का है
एक दिल के टूटने का गम
दिल से लगाये है

दोस्त सब्र करके देख
सब्र से दुनिया है
यूँ भी कभी
क्या मांगने से मौत आये है


३५


दुश्मन है गर तू तो
सीने पर घाव क्यों नहीं करता
और अगर मेरा है तो
अपनों सा बर्ताव क्यों नहीं करता

सदियों से जल रहा है आदमी
दोज़ख की आग में
ऐ खुदा रहमतों की
बरसात क्यों नहीं करता

ईमान, मस्ती, वफ़ा, दोस्ती
यूँ सब पे लुटाने की चीज़ नहीं
तू अपने में
बदलाव क्यों नहीं करता

शमां बनके जले सारी उम्र जिनके वास्ते
उनकी बर्फ सी खामोशी न सही जायेगी
ऐ खुदा मेरे सीने की जलन को
अलाव क्यों नहीं करता

हम तूफां के पाले हुए हैं
नाखुदा लहरों का खौफ कैसा
आजमाना है तो हर लहर को
सैलाब क्यों नहीं करता


३६

मुझ से मत पूछ क्या है
तेरा इश्क
कभी प्यास,तो कभी दरिया है
तेरा इश्क

तुम्हें देख खुदा में
यकीं आ गया
कभी कुफ्र तो कभी इबादत है
तेरा इश्क

तुम्हें जानने से पहले
जाना न था दर्द मैंने
कभी आँसू तो कभी कहकशां है
तेरा इश्क

अपनी जिंदगी सा तराशा है
तेरा हर कौल हमने
कभी पत्थर तो कभी शीशा है
तेरा इश्क

तेरी उल्फत ने भुला दी
वक्त की तमाम हिदायतें
सदियाँ गुजर गयीं फिर भी नया नया सा है
तेरा इश्क


३७

जुल्मो सितम के अब कुछ
और नए मंज़र होंगे
शिकारी के हाथों में
परिंदों के पर होंगे

वो बहुत दूर तक जायेंगे
ये तो खबर है लेकिन
शाम तक इस बाज़ार में
हम किधर होंगे

वो हैं कूँचा-ऐ-यार में
जाने को तैयार
उम्मीदें, ज़ख्म,आँसू
फिर उनके हमसफ़र होंगे

घाव नया है कह के
बहला रहे हैं
दोस्त उनके कुछ गम तो
मेरे साथ उम्र भर होंगे

वो उदास,खफा
अनमने बैठे हैं
वजह कुछ भी हो देख लेना
सब इलज़ाम मेरे सर होंगे


३८

अंधों के शहर में
आईने बेचने निकले
यार तुम भी मेरी तरह
दीवाने निकले

किस किस के पत्थर का
जवाब दोगे तुम
महबूब की बस्ती में
सभी तो अपने निकले

वो हँस कर क्या मिले
तमाम शहर में चर्चा है
तेरी एक मुस्कान के मायने
कितने निकले

ऐ दोस्त! कैसे होते हैं वो लोग
जिनके सपने सच होते हैं
एक हम हैं. हमारे तो
सच भी सपने निकले


३९

दिल देखिये. . उसका शहर देखिये
आज के दौर में
मुस्कराए कोई
तो उसका जिगर देखिये

मेरी उम्र से लंबी है
हिज्र की रात
होए है कब
इसकी सहर देखिये

वो आये महफ़िल में तो उसकी बात हो
न आये तो उसकी चर्चा होए है
कौन सिखाए है उसे
नए नए हुनर देखिये

रकीब के इलाके में
कल जश्न था
उसकी गली से रस्ते
जाये हैं किधर देखिये

वो सितमगर अक्सर
मेरे ख्वाब में आये है
क़ासिद उन पर मेरी
मेहमान नवाजी का असर देखिये


४०
इस शहर का इंतजाम शानदार लगा
हर बेईमान यहाँ ईमानदार लगा

इतनी गर्मजोशी से मिला आज दोस्त मेरा
मुझे दिल ही दिल में उससे डर लगा

सूखा...भूकंप...और फिर बाढ
मंत्री को ये साल बहुत ही कामयाब लगा

बड़ी उम्मीद से आया था
वो गाँव के जलसे में
इंसानों की भीड़ में न कोई हिंदू न मुसलमां
नेता को ये गाँव बड़ा नागवार लगा

ईमान.इखलाक और बेपनाह मुहब्बत
ये मुफलिस भी मुझे खूब मालदार लगा

ये तरक्की के किस दौर में आ गयी है कौम
शहर में हर शख्स एक-दूसरे से खबरदार लगा

Friday, October 15, 2010

मेरी १०१ कवितायेँ

(21)

एक तुम्हारा साथ पा
मैं तरक्की की
बुलंदियां
पार कर जाऊँगा

एक तुम जो बनो हमसफ़र मेरी
सच कहता हूँ मैं
तूफानों को क़ैद
कर लाऊंगा

तुमसे अलग मेरी जां
मेरी जां कुछ भी नहीं
मैं मैं नहीं, हूँ भी तो
मेरी पहचान कुछ भी नहीं

तुम ही तो मेरी जिंदगी भर की दौलत हो
मेरा जोश,मेरी शोहरत,मेरी ज़रूरत हो

ये दुनियां तो बस ख्वाब है दीवाने का
इस में बस तुम ही एक हकीक़त हो

(२२)

आज नहीं तो शायद
कल पता चल जाए
ये मेरा इश्क है
तेरा हुस्न नहीं
जो ढल जाए

मेरी दीवानगी देख
मेरी वफ़ा देख
तू फैसला कल पे न छोड़
कौन जाने कब ये मंज़र
बदल जाए

तेरा हर कॉल मुझे मंजूर
मैं अगले जनम तक
फिर तेरा इंतज़ार कर लूँगा
चल तेरा ये अरमां भी
निकल जाए

(२३)

किसी खुशनुमा शाम को
और खुशनुमा बनाएँ
चलो एक शाम हम
साथ-साथ बिताएं

न मैं कहूँ तुम्हें जिंदगी
न तुम कहो मैं तुम्हारा सब कुछ
न हम साथ-साथ
जीने-मरने की कसमें खाएँ

चलो एक शाम हम
साथ साथ बिताएं
किसी खुशनुमा शाम को
और खुशनुमा बनाएँ

न तुम मेरे लिए
ज़माने से करो बगावत
न आसमां इतना करीब कि तारे तोड़ लाएं
बस एक दूसरे को बेहतर जानें
इस समझ के सिलसिले जमाएं

किसी खुशनुमा शाम को
और खुशनुमा बनाएँ

न कोई आरज़ू
न कोई इसरार हो
न हम एक दूसरे की
कमियां गिनाएं
बस हँसें,चहकें और मिलके गाएं

एक शाम ऐसी भी
हम साथ साथ बिताएं

(२४)

दिल लिखना, नसीब लिखना
दर्द लिखना. जिंदगी लिखना
कितना मुश्किल है
उनपे कुछ भी लिखना

गेसुओं पे क्या कहूँ
जो पहले नहीं कहा
उनकी ये जिद
इनपे फिर भी कुछ लिखना

नर्म गुलाब पंखुड़ी से होंठ तेरे
अता करें जिंदगी
मुश्किल है इस से बरतरफ
इनपे कुछ भी लिखना

तेरी आँखों का मशकूर मैं
इस जनम फिर मुझे पहचान लिया
मुमकिन नहीं इनकी जादूगरी पे
और कुछ भी लिखना

दिल लिखना, नसीब लिखना
दर्द लिखना, जिंदगी लिखना
कितना मुश्किल है
उनपे कुछ भी लिखना


(२५)

सदियों मेरी चाहत
मेरी बेखुदी का
सिलसिला रही है तू

तेरे दम से रही
रगे जां में हरकत
मेरी जिंदगी का हसीं
वलवला रही है तू

मेरे दर्द को इक
हस्ती अता की
सचमुच बड़ी करमफरमा
रही है तू

यूँ इसे मत तोड़
कुछ तो ख्याल कर
आखिर जिंदगी भर
इसी दिल में रही है तू


(२६)

तुम क्या उठे महफ़िल से
ढूँढता फिर रहा हूँ
न जाने कहाँ खो गयी
मेरी जिंदगी

एक बार तुम पलट के देख लो
इस उम्मीद में
दूर तक तुम्हें जाते देखती रही
मेरी जिंदगी

ये मानने में गुरेज़ कैसा
तेरी रहगुज़र से जब भी गुजरा हूँ
वहीँ ठहर के रह गयी
मेरी जिंदगी

न कोई उमंग, न कोई खुशी
मैं जिंदा हूँ
पर कहाँ है
मेरी जिंदगी

आज पूछते हो तो सुनो
मेरे जीने का राज़
जादूगर की जान सी तुझमें बसती है
मेरी जिंदगी

(२७)

इस शहर की भीड़ में
अब कहाँ दोस्त भी
दोस्त की तरह मिलते हैं

यूँ तो सारे अज़ीज़ इसी शहर में हैं
पर ज़माना कुछ ऐसा बदला है
काम पड़े तभी
दोस्त की तरह मिलते हैं

शहर भर में बदनाम हो गए
हम अपनी आदत से परेशां
जिससे मिलते हैं
दोस्त की तरह मिलते हैं

अपना शहर छोड़ तेरे शहर में आ गए
बड़ा सुकून है दिल को
तेरे यहाँ तो अजनबी भी
दोस्त की तरह मिलते हैं

(२८)

उसके मिजाज़ को
हमसे बेहतर कौन समझा है
हमने उसका हर नाज़
उठा रखा है

अब ये भी नहीं
हम कभी खफा ही न हों
बस इतना है हमने ये काम
कल पे उठा रखा है

ज़ज्बा-ऐ-इश्क
फल-फूल रहा है आज भी
कहने को इसने आसमां
सर पे उठा रखा है

अपने बंदगी खुद
करा लेती है
काफिर जवानी ने वो
अहद उठा रखा है

(२९)

वो बोलने पाती तो
कोई बहाना लगाती
सब कुछ सच-सच
कह देती है ये ख़ामोशी

तुमने अच्छा अहद लिया
होंठ सीने का
हमें तो अपनी जान दे के
निभानी पडी ये ख़ामोशी

ज़माने को चाहिए
नए नए अफ़साने दर रोज
दुनियां बहुत देर तक सहे
ऐसी नहीं है ये ख़ामोशी

आज फिर माहौल
अपने हक में नहीं
महफ़िल में उनकी बड़ी
गुमसुम सी है ये ख़ामोशी

(३०)

हम दोनों ने खूब दस्तूर
निभाए मुहब्बत के
तुमने बेजा आरज़ू न की
मेरा कोई अरमान न हुआ

लोग सुनते है और आज भी हँसते हैं
ये कैसी मुहब्बत थी
तुमने आहें न भरीं
और मैं बदनाम न हुआ

दोस्त हमारी मुहब्बत किसी
किसी इबादत से कम न रही
वरना बताये कौन यहाँ
इश्क में तबाह न हुआ

मुहब्बत दो रूहों के
एक हो जाने का सिलसिला थी
इसमें खुदा से अलहदा
हमारा कोई राजदार न हुआ

Thursday, October 14, 2010

मेरी १०१ कवितायेँ

(15)

हमने लिखे थे जो तुम्हारे नाम खत
सिवा तुम्हारे शहर में सबने पढ़े वो तमाम खत

हर सफा था खास, हरेक हर्फ़ में थी हमारी खुशबू
फिर कैसे हो गए हमारे वो बेनाम खत

दिले नाकाम को क़ासिद ने समझाया
“उम्र भर इक छोटे से जवाब को तरसते रहे
मियाँ किस जुबां में लिखते हो तुम खत”

वो बरसों लेने से इनकार करते रहे
हम बरसों लिखते रहे खूने दिल से खत

मैं शब-ए-जुदाई सुकून से मर सका
वो हौले से बोले “भला कोई
अपनों को भी लिखता है यूँ खुले आम खत”


(१६)

तालीमयाफ्ता तो बहुत है मेरा महबूब
सीखनी आंसुओं की जुबां अभी बाकी है

ऐ सात समंदर के सैलानी,सफर खत्म कहाँ
मेरी आँखों में देख, आसमां अभी बाकी है

आपने जो ज़ख्म दिए,मुमकिन नहीं एक जनम में भरें
नज़दीक से देख, पिछले निशाँ अभी बाकी हैं

तेरे ज़ुल्मों ने मुझे इस क़दर मज़बूत कर दिया
तुम किस्सा तमाम समझ भूले थे
पर देख ये सख्त जान अभी बाकी है

ये वादा रहा तेरी महफ़िल से चले जायेंगे
सामान सब बंध गया
तेरी एक मुस्कान अभी बाकी है


(१७)

मैं तो खामोश चला था सरे राह
जिंदगी के हर रास्ते उसका घर निकला

दो बूँद का प्यासा था वो
उसकी हर बूँद में सागर निकला

मेरे बच निकलने की कोई तदबीर न थी
शहर के हर मोड़ पे सितमगर निकला

ये जानते तो जान से क्यूँ जाते
वो तबस्सुम महज़ उसकी आदत निकला

उनसे नज़र मिली फिर होश न रहा
बस इतना याद है मेरा सर झुका था
जब उसका खंज़र निकला

(१८)

यूँ तो इन्साफ मेरे साथ था
पर मुंसिफ तुम्हारा निकला

हम ये किस शहर में आ गए
दीवाना हर शख्स तुम्हारा निकला

मेरी चाहत ने उनमें रंग भर दिए हज़ार
मुझसे मिलके आईना देखा
वो भी दीवाना तुम्हारा निकला

मैं तो वसीयत में खुद को
खतावार लिख मरा हूँ
अब क्या फ़र्क भले कुसूर
तुम्हारा निकला


(१९)

तेरी पेशानी चूम के कभी
मैंने खुदा से दुआ की थी
आज तुझे खुश देख
अपनी दुआ में यकीं आ गया, यकीं आ गया

फ़लक पे सितारे टिमटिमाते हैं अज़ल से
महफ़िल तो तेरे आने से रोशनजदा हुई
सब कहने लगे देखि महज़बीं आ गया
महज़बीं आ गया

गुलशनपरस्त तो हम भी कम न थे
पर कलियों की रुसवाई देखी न गयी
जिस घड़ी गुलशन में बेनकाब
वो पर्दानशीं आ गया,पर्दानशीं आ गया

वो हसीं है खुदा उसकी
जवानी को बरकत दे
मैंने जब जहां बुलाया
मेरा जान-ऐ-जां वहीँ आ गया,वहीँ आ गया

(२०)

जिंदगी के तमाम अजूबों से
हँस कर गुजर गए
जब से हैरत में डालने का
वादा कर गया कोई

कुल शहर से नज़रें
चुरा रहे हैं हम
जब से ख्वाब में आने का
वादा कर गया कोई

ताउम्र समंदर से खाली हाथ
लौटते रहे
नसीब देखिये किनारे पे मेरे नाम
मोती रख गया कोई

हम तो हिसाब-किताब में
वैसे ही कमज़र्फ थे
रोज रात तारों की गिनती
क्यों मेरे नाम कर गया कोई

जाहिर है वो मुझसे खफा हैं
तू भी उनका पर्दा रखना ऐ क़ासिद
कहना “कल हौले से ले उनका नाम
मर गया कोई “

मेरी १०१ कवितायेँ

(१३)

मुहब्बतों की दूरियों में अजब फासले हैं
कहीं एक बार मिल के उम्र भर का गम
कहीं उम्र भर साथ रह कर भी फासले हैं

कितनी ही क्यों न सिमट जाएँ मेरे शहर की सरहदें
दो भाइयों के बीच अभी बहुत फासले हैं

आँखें मेरी, आँचल तेरा, गम आते तो कैसे
हम इसी खुशफहमी में रहे दोनों में बहुत फासले हैं

हम तुम्हें चाहा किये जिस तरह
तुमने चाहा ही नहीं हमें उस तरह
वरना दो धडकनों के बीच कहाँ फासले हैं

तुम सबके दिलों पे राज़ करने की चाहत में मगरूर हो
शहर में सब जानते हैं वफ़ा से तुम्हारे जो फासले हैं

गर्मजोशी से मिलना महज़ आदाब बन के रह गया
जानते आप भी हैं जो दिलों में फासले हैं

अफ़सोस दोस्त ! इक़रार आया, न तुम्हें
मुहब्बत का इनकार आया
वरना लोग हँस हँस के क्यूँ पूछते
“कहाँ तक पहुँचे...अभी कितने फासले हैं ?”


(१४)


तुमसे कभी मिले नहीं
तुम्हें कभी देखा नहीं
ताउम्र बुतपरस्त रहे
हम तेरी तस्वीर के

लाख मौसम आये गए
.... बदला करे
हर बार और शोख हुए
रंग तेरी तस्वीर के

मेरी खुशी में खुश
मेरे गम में ग़मगीन
एहसास एक से रहे
मेरे दिल औ तेरी तस्वीर के

कभी बहार कभी गुल
कभी चाँद,कभी झील
दुनियां ने कितने
नाम दिए तेरी तस्वीर के

इससे बढ़ कर सुबूत
न दे सके अपनी चाहत का
रोज रात पुर्जे-पुर्जे कर
सुबह जोडते रहे टुकड़े तेरी तस्वीर के

Wednesday, October 13, 2010

मेरी १०१ कवितायेँ


(६)

ऐसी दौलत के तलबगार नहीं
तुम्हारी किताब में भले मालदार नहीं
जहाँ मकान पर मकान तो बन गए
अफ़सोस मगर घर उजड रहे हैं

शहर का हवा-पानी बदला है
वो अलग दौर था ये कुछ और
बच्चे तो ज़हीन और काबिल बन गए
बस मां-बाप बिगड रहे हैं

वो हर बार क्यूँ मुस्करा के मिले
एक उम्र लगी ये राज़ जानने में
सुनते हैं वो इक ज़माने से
भाई-भाई से लड़ रहे हैं

ये उनका फैसला है
मुझसे कोई सरोकार नहीं
बस इतना बताएं मेरी रहगुजर पे
वो बार बार क्यूँ मुड रहे हैं

ये ज़मीं हमारी, आसमां हमारा
हम इसी दुनिया के हैं
अब कौन उनसे पूछे
वो इतना क्यूँ उड़ रहे हैं


(७)

खुदा ये दिन भी
दिखाए मुझको
मैं रूठा रहूँ
वो मनाये मुझको

इतना आसां कहाँ
हुनर बदले का
हसरत ही रह गयी
इक बार वो मेरी तरह सताए मुझको

सब कुछ तो कहा
बाकी क्या रहा
अरमां अगर है तो
आज वो भी सुनाये मुझको

सुना है मेरा नाम न लेने का
अहद उठाया है
ये कैसी कसम है
शामो सहर वो गुनगुनाये मुझको

दिल के खेल में सनम
अब माहिर हो चले
गैर की महफ़िल में
वो बेवफा बताये मुझको


ऐ खुदा दिल के हाथों
इस क़दर मजबूर कर दे
भले न बात न करे
इक बार तो बुलाए मुझको

मुझमें खामियां हज़ार
मुझे कब इनकार
काश: ! वो मिटा के
फिर से बनाये मुझको


(८)

आखिर दिल की बस्ती
फिर क्यूँ वीरान हो
तुमने तो दुआ दी थी
तुमसे हर जगह इंसान हो

ये दौर किस शहर में
ले आया हमें
फर्क ही मिट गया
सुबह हो या शाम हो

मैंने कब तुमसे
फरिश्तों की तमन्ना की थी
हमसफ़र बस एक देता
जिसका गुनाहगारों में नाम हो

दोस्त ! हमारी गुजर मुमकिन नहीं
तेरे शहर में
यहाँ एक भी तो ऐसा न मिला
जो मुहब्बत में बदनाम हो


(9)


ज़मीर बेच अमीर
बन गए
ईमान के अच्छे दाम मिले
तेरे शहर में

ठंडी आहें. . दिल में आग
आँखें अश्कबार
हमें तीनों मौसम एक साथ मिले
तेरे शहर में

तेरा नाम .. तेरा ख्याल
तेरी याद ... तेरा गम
दीवाने को कितने काम मिले
तेरे शहर में

कुछ यूँ सूखा आँख का पानी
उम्मीद न थी, लोग अन्धों से भी
नज़रें चुराते मिले
तेरे शहर में

एक बात हम जान नहीं पाए
हमें जो अच्छे लगे
वो सभी क्यों बदनाम मिले
तेरे शहर में

(१०)

ये तेरी मुहब्बत किस मंज़र पे
ले आई दीवाने को
भीड़ में भी अकेला सा
फिरे है कोई

ये मेरा वहम है, सच है
या तिलिस्म तेरा
साफ़ दिखता नहीं पर
हर घड़ी सवाल सा करे है कोई

मैंने यादों को बहुत
गहरा दफनाया था
फिर क्यूँ सरे-शाम से ही
पीछा सा करे है कोई


(११)

तुमने कुछ कहा नहीं
मैंने कुछ बताया नहीं
फिर क्यूँ तेरा नाम लेके
बुलाए हैं लोग मुझे

ये मेरी चाहत की इंतिहा
नहीं तो और क्या है
पीता नहीं हूँ फिर भी
तेरी कसम देके पिलाये हैं लोग मुझे

सुना है हँसने के बाद
रोना लाजिमी है
मगर ऐसा कितना हँस लिए
इस जनम जी भर के रुलाये हैं लोग मुझे

तुम आओ तो एक एक के
किस्से बताऊँ तुम्हें
तुम आ रही हो, तुम आ रही हो
कह के बरसों सताए हैं लोग मुझे

सुना है जिसे शिद्दत से चाहो
ख्वाब में मिलने आता है
फिर क्यों देर रात तक
जगाए हैं लोग मुझे


(१२)

खास कुछ कहा नहीं
खास कुछ सुना नहीं
रात की कौन सी बात याद कर
वो शरमा के रह गए

उतने आसां कहाँ मसाइल मुहब्बत के
जवाब आते उम्र गुजर जाती है जाना
ऐसा क्या पूछ लिया तुमने
वो घबरा के रह गए

मेरे साथ ये हादसा अक्सर हुआ
इनकार समझें या इकरार
मेरे जिक्र आते ही
वो मुस्करा के रह गए


HOLD ME



Hold me tenderly
for I am weak.
helpless like a paralyzed soul
knows not how to express
my love for you.

Your reassuring embrace
your innocent eyes
have always inspired me
so once again
please hold me
for the world is too indifferent.

I know you do not
belong to this world
accept me with my follies
hold me gently
for the world is too vast.

I always belonged to you and
till the world lasts
I promise to be beside you
so please once again
hold me and hold me tight
for I am so vulnerable.



ADIEU NAFISA !



Nafisa is one who is
Impeccable and sophisticated
They say you were an Icon
Next they say you were a
Modern liberated gal
Of twenty first century

Then they add you were a Boozer
Does that make you a
lesser human being?

They say you loved fast driving
Does that make you Fast?
A life in full bloom wasted

I for one never met you
Never known you
Burning your candle at both ends
It did not last long
But illumination it did give
To all your near and dear ones

Who are we to sit on
Judgement ?
A life in full bloom wasted

May you rest in peace

FUTURE



No ! Please don't write my name
In golden letters, for
It will simply gather dust
And will be a vulgar way of
Unsuccessfully immortalizing oneself.

Why don't you understand ?
None could ever be immortal
Merely by writing one's name
May it be on books, trees or
Monuments.

One has to grow trees
Build monuments and
Write a book -
To come anywhere
Near immortalization.

For being immortal is a
Myth
None could ever be immortal
In this futile world after
Adam and Eve.


Illegitimate



Nonetheless I'm a child
Ain't I?
As innocent and gregarious
As your kid
Whose only claim to legitimacy
stems from a wedlock
witnessed by hordes of influential socials

Come to think of it
ain't I as innocent as your child?
but moral upkeep
was seldom a forte of we
the hapless, lifeless rag pickers

I'm lucky
I love my mother
I'm happier
She too loves me
Holds me dear
dearer than her life,
honor and dignity

So what if she doesn't know
my father's name
does it matter?
should it matter?
Leave alone the name
She can't even recollect his face
He truly was a faceless man
nay he wasn't a man
he offsprung from muck
lived in muck and became one himself

Nonetheless I'm a child
Ain't I?

YOUR WORLD.... MY WORLD

I kiss you
As if a dead body
Every touch gives cold impression
Of being immoral.
It is indifference to love?
Possibly warmth itself
Why?
Because it comes from me?
Togetherness signifies warmth
Symbolizes fire for each other.
Why then I dread touching you
Why then you remind me of
Graves and ghosts
Sickness and death?
However gently I touch you
It invokes but warmth.
I understand you are annoyed
Half amused
Nonetheless listening
But reassuring yourself
All is well with the world.

TERRORISM



Whose son was he anyway?
No
He was not killed in action
He was killed for inaction
Something possibly he couldn't have averted
He was as peaceful as is the
Characteristic of his class
Law abiding with deep rooted
Love for traditions
He was pro-establishment and
Seldom disturbed the status-quo
He could talk for hours
Denying he was meek
Always stood in queue
Was reluctant to travel in nights
He would return home just before
Sun could set
Nonetheless, he was killed by a
Stray bullet
Not meant for him
Yet he bore no apathy
Towards the killer
For they both belonged to
Same religion and
He could not be convinced
Killers have no religion whatsoever.

MY MEMORY... MY TREASURE

I had lost you in
Wilderness of this vast world
Much before I could realize
What it means to lose you
Left to cope with killing routine
Too busy to recapture those golden moments
The memory has perhaps served me right
By mercifully fading out
For I cannot even remember
Leave alone re-live
Those precious happy moments
Without inflicting untold miseries
Upon myself
Every moment I find
Face to face with the same very world
Cold indifferent and as usual
Prompt to warn me
"You haven't stopped day-dreaming"


MASOCHISM

I have to live with this
Pain, agony and suffering
And yet smile...

A hardened masochist indeed
No escape but death
Death would relieve me
Of my sorrows...

My feeble soul
Burdened with frozen tears
Would secure a release and
Would once again breathe in
Fresh air...
Untouched by cruelty of your
Beauty, hypocrisy and even presence
On this festival of festivals

The day of deliverance
I shall secure a release and till then
I have to live with this
Pain, agony and suffering...

Friday, October 8, 2010

(२)

आप तो मुझे मनाने आते हज़ार बार

इस दिल का क्या करूँ आप पे आ जाता है बार बार
न सताने का वादा याद था बदगुमाँ को
फिर भी हँस के बोले सता लेने दो आखिरी बार
सुना है वो सितमगर आज फिर रूठा है
देखूं मनाऊं उसे फिर से एक बार
कहाँ गए वो शख्श जिन्हें पास था दिल की मजबूरियों का
उनकी दिल्लगी ठहरी और हम छोड़ आये अपना घर-बार
उस शोख को आते हैं रूठ जाने के बहाने हज़ार
मेरी सादगी देख हर बार मनाता हूँ जैसे रूठे हों पहली बार

(3)

मेरे साथ रह गया
या मुझे तनहा कर गया
फैसला तेरे हाथ है
अब तू ही बता ये क्या कर गया

लोग ताउम्र भटका किये
उसके निशाँ-ए-पा के वास्ते
मेरे साथ दो कदम चला
और मुझे मंजिल के पार कर गया

दिल के सौदे में तू मेरे नफे की न पूछ
एक रात ठहरा था चाँद मेरी ज़मीन पे
और मुझे उम्र भर के लिए
मालामाल कर गया

बहुत सुनते थे उसकी दरियादिली
उसपे जाहिर भी थी मेरी तिश्नालबी
फिर साकी मेरे प्याले को
क्यूँ इतना कम भर गया

मेरे साथ रह गया
या मुझे तनहा कर गया
फैसला तेरे हाथ है
अब तू ही बता ये क्या कर गया .

(४)

वो मेरा था फिर क्यूँ
अजनबी सा गुजर गया
नहीं कोई गिला उससे
बस आज से वो मुझे अपना न लिखे

यूँ ही नहीं अहले-शहर को
याद अब तक
अपने कशीदे.. उसके नाम
हमने कहाँ कहाँ न लिखे

कभी उसकी रुसवाई का
सबब न बन जाएँ
बस ये सोच सोच जिंदगी भर
उसे खत न लिखे

सीना-सिपर था वो फिर क्यूँ
अपने ही आंसुओं में डूब के मर गया
खुदा किसी को पानी की
ऐसी मौत न लिखे


(५)

वादा है आँखें तुम्हारी
खुशियों से रोशन होंगी
मैं चिराग जलाता हूँ
तुम नज़र मिलाओ तो सही

तुम्हारी राह के तमाम कांटे
समेट लाये हैं
लो फ़ैल गयी मेरी बाहें
तुम एक कदम आओ तो सही

तुम्हारे दामन में बहार के
फूल ही फूल होंगे
मैं दुआ में हाथ उठाता हूँ
तुम एक बार मुस्कराओ तो सही

मेरी १०१ कवितायेँ

(१)

तुम्हारी कही निभा रहा हूँ
देखो कितना खुश नज़र आ रहा हूँ
माथे की शिकन से लोग पहचान लेते हैं
रोज एक नया नकाब लगा रहा हूँ
लाख चाह कर भी मैं तेरे जैसा न बन सका
आज भी इबादत कि तरह दिल लगा रहा हूँ
वक्त के पाबन्द वो कल थे न आज
वो आयेंगे ज़रूर यही सोच उम्र बिता रहा हूँ
आना उनका मेरे ज़नाजे पे सौ नाज़ के साथ
नसीब देखिये वो आये हैं और मैं जा रहा हूँ.

इंसानियत की खुशबू से बावस्ता न रहे

वो कागज के फूलों से घर को सजाने निकले.

मेरे घर में आग लगी देख सबसे पहले

मोम से बने लोग मुझे बचाने निकले.

उनकी जफ़ा के किस्से शहर में रवां हैं

फिर किसके भरोसे वो दिल को लगाने निकले.

वही शोख नज़र, वही अल्हड़ बांकपन

यूँ तुमसे बिछुड़े ज़माने निकले.

दरख़्त वो ही हर बार क्यूँ गिर गए

जिन पर हम नशेमन बनाने निकले.

.................

मैं जिसे देखकर ताउम्र मुतासर रहा

वो बहते पानी पर बनी तस्वीर निकली

लोग जिनकी नाज़-ओ-अदा के दीवाने थे

बेवफाई ही उस बुत की तासीर निकली

हम जिनके तसव्वुर में घूमा किए रवां-रवां

सबसे हँस कर मिलना उस सितमगर की आदत निकली

...........

भटकन इतनी थी ज़िंदगी में

सारी ज़िंदगी ही भटकन बन गयी

वस्ल की एक घड़ी ने किया है वो काम

एक छोटी सी रात ज़िंदगी भर की तड़पन बन गयी.

.........

जिनसे हुए थे वायदे ताउम्र साथ निभाने के

वो साथ रह कर भी अजनबी हो गए.

एक के बाद एक, मेरे सभी ख्वाब

बस मुल्तवी हो गए.

अपने चाक गरेबाँ का ग़म नहीं मुझे

चल तेरे अरमान तो पूरे हो गए.

................

अब जफाओं का हिसाब कौन रखे

ज़ख्म खाने की हो गयी आदत अपनी.

रातों का रोना भी क्या रोना

जब ग़म की क़ैदी है हर सुबह अपनी.

नहीं ये उनकी बददुआ का असर नहीं

बस होनी थी सो हो गयी ज़िंदगी तबाह अपनी.

...............

पेशा-ए-साकी बदनाम न कर

मेरे जाम में तू तंगदिली न कर.

तू मुहब्बत से पिलाये जा साकिया

आज ज़हर भी तेरे हाथ से हो जाएगा बेअसर.

तू जवाँ है मिल जायेंगे तुझे दीवाने सौ

मैं कहाँ ले जाऊँ अपना दीदा-ए-तर.

तू आबाद रहे मेरी दीवानगी का यही है मक़सद

अपनी तो होती आई है आगे भी हो जाएगी बशर.

.....................

आज फिर दिल में तन्हाइयों को

बुलंद करने का ख्याल आया.

इश्क़ को जिस्मानी कैद से रिहा

करने का ख्याल आया.

न कोई खुशी सी खुशी है

न किसी ग़म का ग़म

फिर क्यूँ बेखबर मुझे

बारहा तेरा ख्याल आया

.............

कभी सोचा न था हम तुम इतने

नज़दीक रह कर भी

दूर हो जायेंगे.

समाज की दीवारों पर लग जायेंगे

रिवाजों के काँटे और हम तुम इतने

मजबूर हो जायेंगे.

कुछ दबी जुबां में कहते हैं

कुछ आँखों में कहते हैं

पता न था, हम-तुम इतने

मशहूर हो जायेंगे.

................

न आंसू के पैगाम उन तक पहुँचे

न आहों की आवाज पर ही वो आए.

क्या मेरा यार इतनी दूर है

दिल की आवाज भी नहीं सुन सकता.

सुबह होने को है अब तो आ जाए

अब मैं तारे भी नहीं गिन सकता .

.............

लो दर्द की पूँजी भी मुझसे छिन गयी

अब तो दवा ही मेरी दर्द बन गयी

चाहे जीवन काल को तू छोटा दे

आदमी को दर्द की दौलत लौटा दे

वैभव विलास का जब हो जाए बोझ भारी

आँसू उभर कर कहे व्यथा सारी

दर्द ही नहीं जिस महफिल में

वो फिर किसका निदान है

पीड़ा की अभिव्यक्ति ही तो मधुरतम गान है

रात नाम है निश्चय का

कुछ करने की तैयारी का

पश्चाताप का और संतोष की सवारी का

रात मनुष्य की सुप्त की सुरा है

रात से बढ़ कर नहीं सुबह है

कहो तुम यदि दर्द बुरा है

तो जान लो इतना

दर्द का न होना दर्द से भी बुरा है

नीर वही

तीर वही

बस पानी की रवानी

बदल गयी है.

पीर वही

कसक वही

बस दर्द की कहानी

बदल गयी है.

मैं वही

तुम वही

बस दुनियादारी

बदल गयी है.

क्या क्या बदल गया ?

आके देखो आदम तुम

प्रेमी वही

प्रेमिका वही

बस, प्यार

बदल गया है.

बाज़ार वही

खरीदार वही

बस कारोबार

बदल गया है.

जहाँ भर की खुशियाँ समेटने की दौड़ में

मैं टकरा गया अपनी ही अस्मिता से

और लड़खड़ा के इतनी दूर जा गिरा

मुझे फिर शुरू से शुरुआत करनी है.

ये माना जो वक्त था मिलने का

उसे निकले हुए एक उम्र बीत गई

शायद वो अब भी मुझे पहचान ले

दोस्त ! मुझे अपनी ज़िंदगी से मुलाक़ात करनी है.

सोचता हूँ अगर उसने न पहचाना तो ?

न पहचाना तो न सही

एक और इल्ज़ाम मेरे मुकद्दर के सर सही

डर तो इस बात का है अगर उसने

पहचान कर भी पहचानने से इंकार कर दिया तो ?

तो क्या होगा ?

सफर लंबा है

मेरी चाल धीमी है

और दिल में ?

बेशुमार अनहोनियों का डर है

जहाँ भर की खुशियाँ समेटने की दौड़ में

मैं टकरा गया हूँ अपनी ही अस्मिता से.

तारों की इन नज़रों को पहचान सखि !

चाँद की मुस्कराहट का अर्थ जान सखि !

कुछ सोच ! क्या तोड़ने के

लिए ही हैं मेरे अरमान सखि !

तारों की इन नज़रों को..

कुछ करो कि ये उम्र ठहर जाए

कुछ करो कि ये समय का चक्र ठहर जाए

हम-तुम रहें सदा

अब जैसे जवान सखि !

तारों कि इन नज़रों को...

इसलिये तो नहीं मेरे प्राण छटपटाए

इसलिये तो नहीं मैंने गीत बनाये

मैं तेरी याद में सुध-बुध खो बैठूँ

तू गुनगुनाए किसी और का गान सखि !

तारों की इन नज़रों को पहचान सखि !

चाँद की मुस्कराहट का अर्थ जान सखि !


*********************


जवाँ अरमानों की लाश मिली थी

बदनाम बस्ती से कल रात

कुल शहर में पूछताछ की है

अभी तक शिनाख्त न हो सकी.

कहाँ जायेगी सबको पता है

कब जायेगी सबको खबर है

मगर लाश किस घर से निकली

ये बात अभी तक दरियाफ्त न हो सकी.

कब से मुफ्त की पी रहा है ज़ाहिद

उसे खुद भी याद नहीं

खुदा का फ़ज़ल देखिये,कहे है

अभी तक आदत न हो सकी.

ज़माना कर रहा है उनके मुकद्दर पे रश्क

और वो खुद को बदनसीब कहते हैं

लाख कोशिश की मगर उन जैसी

किसी की किस्मत न हो सकी.

वाइज़ एक उम्र से बता रहा है

मेरी महबूब और खुदा में अन्तर

समझता हूँ, फिर भी महबूब की

शान में कोई गुस्ताखी न हो सकी.


*********************


खुदा की नियामतें फीकी पड़ जाएँ

मेरा महबूब गर मेहरबा हो जाए

तुमसे संभले न संभलेंगे शिकवे मेरे

गर मेरे दिल के फकत इक जुबां हो जाए.

कब तक यूँ रोके रहोगे

मेरी हसरतों के सैलाब को

हर बार ज़ब्त किया

चलो तुम्हारी आरज़ू जवाँ ह जाए.

मेरे चाहने में न थी कमी कोई

मगर क्या करे कोई

यह ज़मीं

अगर आसमां हो जाए .


Respectability....?


Yes it’s mutual

Nonetheless being women we are far more vulnerable

Juggling many worlds

A well groomed daughter, a doting sister, a favorite daughter-in-law

Home-maker wife and affectionate mother

Pheeeew! How many hats, one can don

Reincarnated...?

Resurrected.....?

Nonetheless being women we are far more vulnerable

Lofty objectives to fulfill

Caring, endearing, tearful but smiling

Crying yet laughing

Perpetually at war to preserve our individuality

And seeking solace in divinity

A great feat indeed

Along the road 'on guard'

Excusing... Slipping... Escaping

Just in time from the

Preying vultures, antelopes on prowl

Oh 'advances' of those glib-tongued protectors

We have to keep an eye on

Protect our modesty and yet not appear offended

Much less sound offending

Learn young to interpret gestures

Process post-haste those verbal and not so verbal onslaughts

Jeering colleagues, ogling neighbors and 'extra kind' fellow passengers

And leering seniors

Yes being women we are far more vulnerable

We, the Man! The lesser mortal

“With inflated ego”

Seeking solace in ‘mythical fairies’

Ever groping in dark, mystical world

Where have all fairies disappeared?

Did they ever live here at first place?

No wonder we are emotional fools

Hasten to flaunt and waste our emotions

Misplaced flow drains us

Leaves us, devoid of solemnity and maturity

Leaves us lost in vast vacuum

"Man! When will we grow up?”

Always untidy, grotesque

Cluttering your lives with superfluous trivia

You who are forever jostling to treasure

Your ‘purity’

In this polluted world full of pompous men

With impure intentions

And yes if only we could be deported

To the utopia of fairies and queens

Umbilical chord intact, condemned to die

Ever waiting for those fairies and queens

Like a

Migrant, stranded for 'local' on a mega block day

In our bubble

Till someone bursts it

Crashing us face-down to coarse hard realities

Gratitude! Where it is due, that is you

For bridling the 'loose' us

When will we demystify and learn

To live in the ‘present’

Away from fake world of make believe celluloid

Fairies and queens do not live here anymore

They died long back

Rest in peace

Amen!

Tobacco kills...

Because it fouls breathe

Fouls mouth

Spoils teeth and gums

Causes incurable ulcers in mouth

Gives profuse sweating

Leads to giddiness

Mistakenly called a ‘High’

Envelopes the consumer in general fatigue

Leads to joint pain

Soils hanky and clothes

Is a drain on your purse

Brings you to stand with awkward people

Brings uncontrollable urge

Leads certainly and surely to cancer

So say ‘No’ to Tobacco

Today and always

( on the occasion of Anti-Tobacco Day 31st May 2010)