Friday, October 8, 2010

जहाँ भर की खुशियाँ समेटने की दौड़ में

मैं टकरा गया अपनी ही अस्मिता से

और लड़खड़ा के इतनी दूर जा गिरा

मुझे फिर शुरू से शुरुआत करनी है.

ये माना जो वक्त था मिलने का

उसे निकले हुए एक उम्र बीत गई

शायद वो अब भी मुझे पहचान ले

दोस्त ! मुझे अपनी ज़िंदगी से मुलाक़ात करनी है.

सोचता हूँ अगर उसने न पहचाना तो ?

न पहचाना तो न सही

एक और इल्ज़ाम मेरे मुकद्दर के सर सही

डर तो इस बात का है अगर उसने

पहचान कर भी पहचानने से इंकार कर दिया तो ?

तो क्या होगा ?

सफर लंबा है

मेरी चाल धीमी है

और दिल में ?

बेशुमार अनहोनियों का डर है

जहाँ भर की खुशियाँ समेटने की दौड़ में

मैं टकरा गया हूँ अपनी ही अस्मिता से.

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