Friday, July 9, 2010

सुनहरी धूप की छाँव तले




साँसों पर था क़र्ज़ तुम्हारा,सो हम आज उतार चले
प्यासे आये, प्यासे ही,तेरे दर से हम यार चले.
तेरे शहर में दिल की जिन्स से हैं लोग नावाकिफ़
यहाँ तो बस दौलत से कारोबार चले .
इन रिश्तों की सौदेबाजी में ,चश्म-ऐ-नम के खरीदार चले
तेरे शहर में हमारी गुजर नहीं ,जाने कब तक
हुस्नगर तेरा यह बाज़ार चले .


......



लाशों की कमी न रहेगी,कब्रिस्तान और शमशान में
मेरा शहर जब तक फर्क करेगा इंसान और इंसान में .
बेपनाह दौलत परदेश में छोड़ लौट आये हैं भाई लोग
फर्क मालूम हो गया उन्हें घर और मकान में .
गाँव छोड़ चले तो आये तुम शहर में , एक बार बाज़ार से गुजरे
तो जानोगे सब कुछ तो बिकता है मेरे शहर की दूकान में .
खामोश दरिया से ज्यादा डरते हैं मांझी
यूँ बेख़ौफ़ सफीने उतारते हैं वो तूफ़ान में .
उड़ने वाले तुम पहले नहीं शख्श ऐ दोस्त !
परिंदे कुछ पुराने हमें भी जानते हैं इस आसमान में .


.......



इस शहर का इंतज़ाम शानदार लगा
हर बेईमान यहाँ इमानदार लगा
इतनी गर्मजोशी से मिला आज दोस्त मेरा
मुझे दिल ही दिल में उस से डर लगा
सूखा,भूकंप और फिर बाद
वजीर-ऐ-राहत को ये साल बहुत ही कामयाब लगा
ईमान,इक्ह्लाख और बेपनाह मुहब्बत
ये मुफलिस भी मुझे खूब मालदार लगा
ये तरक्की के किस दौर में आ गयी कौम
शहर में हर शख्श एक दूसरे से खबरदार लगा

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