Sunday, July 18, 2010

ऐ बादल

ऐ बादल ! उमड़ घुमड़ के तू गाये

कुछ भी हमारी समझ में न आए

तेरे अजब निराले आकार ऐसे

लगता है बहुत दुखी है जैसे

तेरे तन-मन लगता है चोट हैं खाये

तेरी हस्ती के आगे रवि भी मुँह छुपाए

ऐ बादल उमड़-घुमड़ के तू गाये

पावन के झोंकों पर हो कर सवार

तू ले जाता है देश देश बहार

धरती पर कोई तेरी पीड़ा समझ न पाये

बच्चे बूढ़े किसान खुश हैं

हर्ष में पपीहा भी चिल्लाए

ऐ बादल उमड़- घुमड़ के तू गाये

रो रो के जब तू अपनी व्यथा सुनाता है

आदमी बारिश कह तेरा उपहास बनाता है

तुझे यूँ विरह से व्याकुल देख

क्षण भर को विद्युत तुझसे मिलने आए

ऐ बादल उमड़-घुमड़ के तू गाये

मानव सीखे तुझसे दया और उपकार

तेरे अश्रु भी करते कितना परोपकार

पृथ्वी पर कृषक, चातक, जन-जन को

तेरा रुदन भी जीवन बन जाये

ऐ बादल उमड़-घुमड़ के तू गाये

कुछ भी हमारी समझ में न आए

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