जवाँ अरमानों की लाश मिली थी
बदनाम बस्ती से कल रात
कुल शहर में पूछताछ की है
अभी तक शिनाख्त न हो सकी.
कहाँ जायेगी सबको पता है
कब जायेगी सबको खबर है
मगर लाश किस घर से निकली
ये बात अभी तक दरियाफ्त न हो सकी.
कब से मुफ्त की पी रहा है ज़ाहिद
उसे खुद भी याद नहीं
खुदा का फ़ज़ल देखिये,कहे है—
अभी तक आदत न हो सकी.
ज़माना कर रहा है उनके मुकद्दर पे रश्क
और वो खुद को बदनसीब कहते हैं
लाख कोशिश की मगर उन जैसी
किसी की किस्मत न हो सकी.
वाइज़ एक उम्र से बता रहा है
मेरी महबूब और खुदा में अन्तर
समझता हूँ, फिर भी महबूब की
शान में कोई गुस्ताखी न हो सकी.
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खुदा की नियामतें फीकी पड़ जाएँ
मेरा महबूब गर मेहरबा हो जाए
तुमसे संभले न संभलेंगे शिकवे मेरे
गर मेरे दिल के फकत इक जुबां हो जाए.
कब तक यूँ रोके रहोगे
मेरी हसरतों के सैलाब को
हर बार ज़ब्त किया
चलो तुम्हारी आरज़ू जवाँ हो जाए.
मेरे चाहने में न थी कमी कोई
मगर क्या करे कोई
यह ज़मीं
अगर आसमां हो जाए .
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जहाँ भर की खुशियाँ समेटने की दौड़ में
मैं टकरा गया अपनी ही अस्मिता से
और लड़खड़ा के इतनी दूर जा गिरा
मुझे फिर शुरू से शुरुआत करनी है.
ये माना जो वक्त था मिलने का
उसे निकले हुए एक उम्र बीत गई
शायद वो अब भी मुझे पहचान ले
दोस्त ! मुझे अपनी ज़िंदगी से मुलाक़ात करनी है.
सोचता हूँ अगर उसने न पहचाना तो ?
न पहचाना तो न सही
एक और इल्ज़ाम मेरे मुकद्दर के सर सही
डर तो इस बात का है अगर उसने
पहचान कर भी पहचानने से इंकार कर दिया तो ?
तो क्या होगा ?
सफर लंबा है
मेरी चाल धीमी है
और दिल में ?
बेशुमार अनहोनियों का डर है
जहाँ भर की खुशियाँ समेटने की दौड़ में
मैं टकरा गया हूँ अपनी ही अस्मिता से.
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इंसानियत की खुशबू से बावस्ता न रहे
वो कागज के फूलों से घर को सजाने निकले.
मेरे घर में आग लगी देख सबसे पहले
मोम से बने लोग मुझे बचाने निकले.
उनकी जफ़ा के किस्से शहर में रवां हैं
फिर किसके भरोसे वो दिल को लगाने निकले.
वही शोख नज़र, वही अल्हड़ बांकपन
यूँ तुमसे बिछुड़े ज़माने निकले.
दरख़्त वो ही हर बार क्यूँ गिर गए
जिन पर हम नशेमन बनाने निकले.
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मैं जिसे देखकर ताउम्र मुतासर रहा
वो बहते पानी पर बनी तस्वीर निकली
लोग जिनकी नाज़-ओ-अदा के दीवाने थे
बेवफाई ही उस बुत की तासीर निकली
हम जिनके तसव्वुर में घूमा किए रवां-रवां
सबसे हँस कर मिलना उस सितमगर की आदत निकली
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भटकन इतनी थी ज़िंदगी में
सारी ज़िंदगी ही भटकन बन गयी
वस्ल की एक घड़ी ने किया है वो काम
एक छोटी सी रात ज़िंदगी भर की तड़पन बन गयी.
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जिनसे हुए थे वायदे ताउम्र साथ निभाने के
वो साथ रह कर भी अजनबी हो गए.
एक के बाद एक, मेरे सभी ख्वाब
बस मुल्तवी हो गए.
अपने चाक गरेबाँ का ग़म नहीं मुझे
चल तेरे अरमान तो पूरे हो गए.
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अब जफाओं का हिसाब कौन रखे
ज़ख्म खाने की हो गयी आदत अपनी.
रातों का रोना भी क्या रोना
जब ग़म की क़ैदी है हर सुबह अपनी.
नहीं ये उनकी बददुआ का असर नहीं
बस होनी थी सो हो गयी ज़िंदगी तबाह अपनी.
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पेशा-ए-साकी बदनाम न कर
मेरे जाम में तू तंगदिली न कर.
तू मुहब्बत से पिलाये जा साकिया
आज ज़हर भी तेरे हाथ से हो जाएगा बेअसर.
तू जवाँ है मिल जायेंगे तुझे दीवाने सौ
मैं कहाँ ले जाऊँ अपना दीदा-ए-तर.
तू आबाद रहे मेरी दीवानगी का यही है मक़सद
अपनी तो होती आई है आगे भी हो जाएगी बशर.
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आज फिर दिल में तन्हाइयों को
बुलंद करने का ख्याल आया.
इश्क़ को जिस्मानी कैद से रिहा
करने का ख्याल आया.
न कोई खुशी सी खुशी है
न किसी ग़म का ग़म
फिर क्यूँ बेखबर मुझे
बारहा तेरा ख्याल आया
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कभी सोचा न था हम तुम इतने
नज़दीक रह कर भी
दूर हो जायेंगे.
समाज की दीवारों पर लग जायेंगे
रिवाजों के काँटे और हम तुम इतने
मजबूर हो जायेंगे.
कुछ दबी जुबां में कहते हैं
कुछ आँखों में कहते हैं
पता न था, हम-तुम इतने
मशहूर हो जायेंगे.
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न आंसू के पैगाम उन तक पहुँचे
न आहों की आवाज पर ही वो आए.
क्या मेरा यार इतनी दूर है
दिल की आवाज भी नहीं सुन सकता.
सुबह होने को है अब तो आ जाए
अब मैं तारे भी नहीं गिन सकता .
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लो दर्द की पूँजी भी मुझसे छिन गयी
अब तो दवा ही मेरी दर्द बन गयी
चाहे जीवन काल को तू छोटा दे
आदमी को दर्द की दौलत लौटा दे
वैभव विलास का जब हो जाए बोझ भारी
आँसू उभर कर कहे व्यथा सारी
दर्द ही नहीं जिस महफिल में
वो फिर किसका निदान है
पीड़ा की अभिव्यक्ति ही तो मधुरतम गान है
रात नाम है निश्चय का
कुछ करने की तैयारी का
पश्चाताप का और संतोष की सवारी का
रात मनुष्य की सुप्त की सुरा है
रात से बढ़ कर नहीं सुबह है
कहो तुम यदि दर्द बुरा है
तो जान लो इतना
दर्द का न होना दर्द से भी बुरा है
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