Saturday, June 12, 2010

भूले - बिसरे

अलील के क़दह में मुझे मौत पिला दे

मगर ए खुदा कमसकम मेरे दुश्मन को ज़िलादे

ये साकी ही ऐसा है पैमाने में ज़हर मिला देता है

मैं लाख इंकार करूँ ये बोतल की कसम खिला देता है

मैं पहलू-ए-यार से उठ कर भागता हूँ

मगर वो हाथ थाम कर पिला देता है

कुछ भी कहो आज दो घूंट जरूर लूँगा

ज़िद करते हो तो कल से छोड़ दूँगा .

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तमन्ना नहीं रांझा या मजनूँ बनूँ

तमन्ना नहीं किसी की रातों का जुगनू बनूँ

हसरत अगर थी तो सिर्फ एक

तमाम उम्र उसी का रहूँ मैं जिसका बनूँ

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पाजेब से उनकी फिर कोई बदली टकराई

नासमझ दुनियाँ बोली बारिश आई

आज फिर उनकी क़ातिल अदा ने किसी परदेसी को लूटा है

आज फिर पूरब पे काली घटा छाई

खबर ये सुनने में आई थी

किसी दीवाने ने उनके लिए खून की होली मचाई थी

हमने पूछा माजरा क्या है वो नज़ाकत से बोले

"कुछ नहीं उस दिन जरा महावर रचाई थी "

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ये उलझे-उलझे से गेसू

ये दबी-दबी सी मुस्कराहट

ये झुकी-झुकी सी पलकें

यहीं कहीं देखो,इन्ही में

कोई मेरे दिल का चोर निकल आएगा

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बदकिस्मत ही सही मेरी तक़दीर हो फिर भी

खूबसूरत ही सही मगर ज़ालिम हो फिर भी

बेवफ़ा ही सही मेरी महबूब हो फिर भी

हाथ में खंजर नहीं तो क्या मेरी क़ातिल हो फिर भी .

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साथ तू रहे तो बंजर भी हरियाली है

साथ तू रहे तो अमावस भी ऊषा की लाली है

साथ तू रहे तो मैं मर के भी जी लूँगा साथ

तू रहे तो विषघट भी अमृत की प्याली है

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ढूँढ लूँगा निदान मैं,

अपनी पीड़ा का तेरे गान में

ज्योति जो एक झोंके से बुझ गयी,

वो नहीं मेरी प्रेरणा मैं तो अब तक जीया,

देख के वो दीया जो जलता रहा तूफ़ान में

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फुरसत हुई तो सुनुंगा तेरी भी मधुर वाणी

अभी तो सुना रहा जली-कटी मुझे जग का हरेक प्राणी

समय मिला तो निहारूंगा रूपश्री तेरे यौवनधन को

लेकिन अभी तो देखना है मुझे अपने ही तन-मन को

खाली हुआ तो तेरे दिल से भी दिल को लगाना है

परंतु अभी तो मुझे पत्थर से प्यार उगाना है

विश्राम में पीऊँगा अमृत तेरे नयन का

क्षमा करना अभी तो पीना है आँसू मुझे हरेक नयन का

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ये फ़ासला तुमसे घटाया नहीं जाता

हमारा ये दुख बंटाया नहीं जाता

आखिर कब तक ये कह के टालते रहोगे

किस्मत का लिखा मिटाया नहीं जाता

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दवा मत दे लेकिन मैं मर्ज भी नहीं चाहता

करार मत दे लेकिन मैं दर्द भी नहीं चाहता

यूँ किसी के दिये पे किसकी बशर हुई आजतक

प्यार मत दे लेकिन मैं नफरत भी नहीं चाहता

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तुम्हें चाह के दौलत और दुनियाँ की परवाह छोड़ दी

तुम्हें पा के चाँद-सितारों की हसरत छोड़ दी

तुम्हारा प्यार पा कर सच पूछोतो

मैंने हर तमन्ना छोड़ दी .

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पेरिस की एफिल टावर गिर पड़ी

ताज महल बालू में बदल गया

अशोक की लाट को जंग लग गया

कुतुब मीनार पृथ्वी में धँस गयी

चीन की दीवार ज़मीन में फंस गयी

मिस्र के पिरामिडो में से ममी निकाल भागे थे

जाँच की तो पता लगा आज फिर किसी ने किसी को धोखा दिया था

किसी का दिल तोड़ा था

(नवभारत टाइम्स 4 जून 1972).

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तूफ़ा ने मुझे किश्ती

चलाना सिखा दिया

डूबने ने मुझे

तैरना सिखा दिया
(नवभारत टाइम्स 1 अक्तूबर 1972 )

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नहीं समझी सरकार

जनता की पीर

निर्धन पीता रहा अपना ही रक्त नीर

हम पीछे खींचते रहे मूल्यों को

मगर महँगाई बन गयी 'द्रोपदी का चीर'


(नवभारत टाइम्स 24/2/1974 )

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घी तेल गेहूँ कोयला

दूध और डबल रोटी

बन गए है 'बाली' जैसे

ग्राहक के सामने आते ही दुगने हो जाते हैं (केवल दाम में )

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हर बार हमारी सरकार

प्रयत्न करती है न रहें बेकार

किन्तु हर बार खाली जाता है उसका दांव

गरीबी बन गयी है 'अंगद का पाँव'

(नवभारत टाइम्स 12/5/1974 )

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(पेरोडी -- खिलौना जान कर...)

नवभारत टाइम्स 9/7/1973


बस की क्यू जानकर तुम तो मेरा दिल तोड़ जाते हो

यहाँ राशन में खड़े लोगों की तरह मुझे किसके सहारे छोड़ जाते हो

सुनो मेरे दिल से न लो बदला तेल और कोयले का

डालडा तो मैं छोड़ चुका अब तो आदी हो गया हूँ,कुलछे-छोले का

कि मैं चल भी नहीं सकता और तुम सोने के भाव की तरह दौड़ जाते हो

बस की क्यू जानकर ...

था जिस 'पे-कमिशन' का मुझको सहारा

उसी ने मुझको पाक दरिंदों की तरह मारा

गुजारा मेरा मुझसे चलता नहीं कर्ज़ बढ़ जाता है

सिगरेट और ब्लेड की तरह हर बार खर्च तुम्हारा बढ़ जाता है

मैं पाँच पैसे का ग्लास पी नहीं सकता और तुम

ब्लैक में 'कोक' पी जाते हो

बस की क्यू जानकर ....
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मेरे विचार बंद हैं दिमाग में

जैसे कोई अचार,डिब्बे के किसी भाग में

प्रकट नहीं होते विचार खुलता नहीं अचार

विचार जवान होते हैं अचार पक जाता है

फिर भी विचारों का कलेवर नहीं होता

अचार का सेवन नहीं होता

मैं क्रुद्ध हो जाता हूँ गंभीर, अप्रसन्न होता हूँ

और घुट जाते हैं विचार

जैसे डिब्बे में बंद सड़ जाता है अचार
(नवभारत टाइम्स 6/4/1975 )

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ये क्या हो गया देश का हाल कदम कदम पर आंदोलन जगह जगह हड़ताल

सत्याग्रह का नाम ले असत्याग्रह हो रहा भूखहडताल की आड़ में दुराग्रह हो रहा

मंत्री से संतरी तक चाहता है वेतन वृद्धि आप लाख विरोध करें छोड़ेंगे नहीं ये अपनी कुर्सी

क्या यही था शहीदों का वतन,क्या यही था गांधी का स्वप्न एक पर नहीं खाने को रोटी,

दूसरे के पास लाखों का धन

एक बहाता शाम तक पसीना,

फिर भी अभिशिप्त है उसका जीना कौन है वो ? कहाँ है वो ?,

जिसने हक इनका छीना

आज विद्यार्थी का अनशन है,तो कल अध्यापकों का प्रदर्शन

चाहे रेल का चालक हो,या हो यान का पाइलट

कमेटी का कर्मचारी हो या बैंक का क्लार्क

सबकी है आवाज यही

महँगाई घटाओ,गरीबी हटाओ,वेतन बढ़ाओ

किन्तु क्या इसका दोषी हर व्यक्ति स्वयं नहीं

जिसको मौका लगता है छोडता नहीं वो अपना लाभ

एक हाथ से विरोध करता सरकार का,दूसरे से ढूँढता अपना स्वार्थ

एक शोषक शोषण करता असंख्य शोषितों को

एक विश्वासघात असफल कर देता सभी कोशिशों को

एक व्यापारी ठगता क्या असंख्य ग्राहकों को नहीं

एक सिंह मारता क्या असंख्य मृगशावकों को नहीं

फिर दोषी कौन ? क्या तुम स्वयं नहीं ?

उठो कि जैसे तूफ़ान उठता है,बढ़ो कि जैसे सूर्य बढ़ता है

ढूँढ लो अपने अंदर बैठे लुटेरे को,दूर कर दो हृदय में छाए अंधेरे को

मार्ग की हर बाधा को हटा दो,जो बाँधे तुम्हें ऐसे बंधन को मिटा दो

जब कोई नियम तुम्हें व्यर्थ सताये

शासक अपने अत्याचारों को समय का चलन बताये

समझ लो महत्ता समाप्त हो गयी शांति की

समय को आवश्यकता है क्रांति की

.
( नवभारत टाइम्स 13/1/1974 )



प्रत्येक का है बस यही अरमा

मिले एक अच्छी सी माँ

जो दुगनी करे खुशी बाँट ले बेटों का सदमा

जीजाबाई सी आदर्श होदेख जिसे मन में हर्ष हो

आँखों में बसे जिसके सुख-संसार

हाथों में जिसके रहे हमेशा आशीषों का आगार

वाणी से जिसकी आ जाए हमारे जीवन में बहार

हमारी हर असफलता पर वो दे नवचेतन का उपहार

भरी रहे हमारे जीवन में उसके मधुर प्यार के फुहार


(नवभारत टाइम्स 26/8/1973)


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देख के मुझे उन्होने नज़रें झुका लीं

मगर हमसे मुँह मोड़ा न गया

हम थे तैयार दुनियाँ तलक छोडने को

हाय उनकी शर्म उनसे ये समाज छोड़ा न गया

उनके एक इशारे पर तोड़ दी मैंने मज़बूत रिश्तों की बेड़ियाँ

हाय उनकी नजाकत को क्या कहूँ उनसे एक रिवाज तोड़ा न गया

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दिन ढल गया है, रात से क्या कहें

ज़माना बदल गया है, आप से क्या कहें

लाख चाहा है भूलना मैंने आपके जाने के बाद

अब आँसू छलक गया है तो आँख से क्या कहें

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आह भर तो सकता हूँ, मगर दर्द को दबाये जा रहा हूँ

साथ रहना कोई रिवायत तो नहीं,फिर भी निभाये जा रहा हूँ

लहू जिगर का समझ के मय,हर महफिल में पीए जा रहा हूँ

यूँ हसीन और भी हैं ज़माने में,न जाने क्यूँ मैं तेरा ही नाम लिए जा रहा हूँ.

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दौड़ने से पहले चलना तो सीख लो *

चलने से पहले गिरना तो सीख लो

मैंने देखी हैं ज़िंदा लाशें

जीने से पहले मरना तो सीख लो

*
उनका कोई तत्व नहीं जीने में *

वे बोझ हैं धरती के सीने में

जो श्रम का मूल्य नहीं समझे

न जाने क्या शक्ति है पसीने में


किसी ने युद्ध किया किसी ने संधि *

किसी ने कहा किसी भी प्रकार से जीतो

मगर मैं कहता हूँ शत्रु को

अपने उपकार से जीतो

( * नवभारत टाइम्स 31/3/1974 )
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तेरे बगैर जीवन ?

केवल दिनों का काटना भर है

ले रहा हूँ मैं हर साँस जैसे

तेरी धरोहर है.

मैं तो बिका हूँ प्रेमनगरी में बेमोल

प्रिय एक बार आके कर जाओ मेरे प्राणों का मोल .

या कह दो वो भ्रम था भावनाओं का बंधन था

मगर मैंने महसूस किया है छू के देखा है

मैं कैसे कह दूँ वो सब स्वप्न था

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मृत्यु कामिनी है यदि बांध लो उसे प्रणय-पाश में

मृत्यु भामिनी है यदि तो तिलक करा लो ललाट में

मृत्यु मदिरा है यदि तो पी लो बूंद प्रत्येक

मृत्यु विष है यदि तो देखना रह न जाए बूंद कोई एक

मृत्यु व्रक्ष है यदि लिपट जाओ उस से लता की भाँति

मृत्यु भ्रम है यदि तो अपना लो ये सुंदर भ्रांति

मृत्यु किसी सुंदरी का मुख है यदि तत्क्षण ही ढूंढ लो मुक्ति उसके चुंबन में

मृत्यु कमनीय काया है यदि स्वयं लिपट जाओ उसके आलिंगन में

ओ राही क्यों भटक रहा, ये जग मोह का बंधन है

क्यों भूल रहा जानकर जो सत्य है

मृत्यु अपने आप में एक जीवन है .

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तुम आए कि अंधे को आँख,

पतझड़ पे वसंत वीराने में बहार

और ज़िंदगी आ गयी पर्दे में

तुम आयीं कि अपढ़ को ज्ञान,अंधकार में उजाला

घर में खुशी और जान आ गयी मुर्दे में

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एक आँसू हमारा था जो आँख से संभला नहीं

एक आँसू तुम्हारा था जो आँख से निकला नहीं

डाल दी है तोहमत मैंने मुकद्दर की पेशानी पे

हक़ीक़त ये है मुझे तुमसे कोई गिला नहीं

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प्रिय भूल न जाना वे क्षण

किए थे जब हरी दूब पर बैठ हमने कुछ प्रण

पूछेगा प्रश्न बीता हुआ कल,आने वाले कल से.

मांगेगी उत्तर हर लहर, उठते गिरते झरने की कलकल से

क्या दोगे तुम तब ? इसलिये कहता हूँ

बिसरा न देना मेरा नाम अपने स्मृति पटल से.

रही एक ही जान, चाहे रहे हों दो तन

प्रिय भूल न जाना ..

कोई आश्चर्य नहीं उन स्थितियों में

हम तुम दोनों बदल जाएँ अपनी परिस्थितियों में

संभव है तुम मग्न हो जाओ विजयोल्लास में

या दूरी बन जाए बैरिन हमारे मिलाप में

लेकिन बैठे होगे जब तुम अवकाश में

मुझे विश्वास है मेरी याद

मेघ बनके घिर आएगी तुम्हारे हृदयाकाश में

हाय कैसे कट पायेंगे वे दिन

प्रिय भूल न जाना ...

माना भौतिकता के दायरे में ज़िंदगी बंधी है

किन्तु सुना है मैंने ये भी हृदय से हृदय की डोर बंधी है

होने दो अपने हृदय पर मेरी स्मृति का हिमपात

रुको! मत हटाओ मेरी यादों के हिमकण

क्या तुम भूल गए वे क्षण

किए थे जब हरी दूब पर बैठ हमने कुछ प्रण

प्रिय भूल न जाना ...
(कॉलेज पत्रिका 1976 ).............................


हृदय दर्पण के हर कण-कण पर

प्रतिबिंब है तुम्हारा.

मेरी हर साँस पर

प्रिय ऋण है तुम्हारा.

मैं कौन ? कहाँ ?क्या अस्तित्व मेरा

सुना है जग को गति देता है

संकेत तुम्हारा

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चिंगारी दबेगी नहीं ये माना मैंने

लेकिन शोलों को यूँ हवा देना भी ठीक नहीं.

दर्द से लेते हैं जो काम इलाज़ का

उनको यूँ दवा देना भी ठीक नहीं.

जो तुम पर जान लुटाना चाहते हैं

उनको लंबी उम्र की दुआ देना भी ठीक नहीं

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बिखरे हुए थे यूँ तो कई आँचल हवा में

मैंने वो थाम लिया जो तेरा दामन था.

सपने क्योंकि टूट जाते हैं इसलिये अब आदमी लौट आता है

सपनों को विदा कर वहीं, जहाँ से वह चला था.

लेकिन मैं उसके पीछे हो लिया जो तेरा स्वप्न था.

खड़े हैं बहुत से प्रश्न और समस्याएँ हाथ बाँधे,दम साधे,

पहले मैं.. पहले मैं चिल्लाते

लेकिन मैंने वो उत्तर ढूढ़े जिन में तेरा प्रश्न था.

किसी में था सघन वन,किसी में था मधुर उपवन

कहीं धन था,कहीं तन,कहीं प्रताड़ना,कहीं आलिंगन

लेकिन मैंने वो अपना लिया जो दुनियाँ का चलन था

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मेरी कसम है तुमको, जज़बात को सुर मत देना

मेरे भटकते प्यार को, तुम अपना दिल मत देना

मंज़िल पर पहुँच कर लोग पूछेंगे तुमसे तुम्हारी कामयाबी का राज़

उस मुकाम पे तुम मेरा नाम मत लेना

अहमियत मंज़िल की है,राह की,राही की है

हमराही की नहीं.

इसलिये कहता हूँ तुम मुझे अहमियत मत देना

मेरी कसम है तुमको,जज़बात को तुम सुर मत देना

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मेरा दर्द मुझे जीने नहीं देगा

तेरी याद मुझे मरने नहीं देगी

ज़माना बड़ा ज़ालिम है ए दोस्त

आज अगर हम नहीं मिले कल ये दुनियाँ हमे मिलने नहीं देगी

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तेरी बेवफाई का गिला

मैं किस से करूँज़माना बेवफ़ा है

अब तो गिला है मुझे

अपनी ही वफ़ा पर

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यूँ तो तुमसे विछोह हुए एक युग बीत चला है

फिर भी नयन-नत तुम्हारी छवि मेरे नैनों में बसी है

लगता है तुम्हारी मधुर हँसी की खनक

मेरे कानों ने अभी-अभी सुनी है

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बधाई पत्रों में सिमट के रह गए

हमारे रिश्ते

कभी थे हर पल के अब वार्षिक हैं

हमारे रिश्ते

होठों पे मुस्कान चिपकाए ढोने पड़ रहे कितने भारी हो गए

हमारे रिश्ते

सहारे लेकर नातों का मत पींग बढ़ाना सुनते हैं बड़े कमजोर हैं

हमारे रिश्ते

तुम्हें कोई नाम,कोई संबोधन नहीं मिला तो क्या

कुछ न हो कर भी सब कुछ थे

हमारे रिश्ते

3 comments:

  1. हिंदी ब्लाग लेखन के लिए स्वागत और बधाई
    कृपया अन्य ब्लॉगों को भी पढें और अपनी बहुमूल्य टिप्पणियां देनें का कष्ट करें

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  2. thanks,ab aapki kavitao ka aanand is blog ke madhyam se uthaya ja sakata hai.

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