Sunday, May 30, 2010

अब जीने के यही कुछ असबाब हैं

मेरे सिरहाने तेरे कुछ ख्वाब हैं

गँवा के खुद को, तुझे पाया है

तब जाकर कहीं होश आया है

क्या कुफ़्र है ? और क्या इबादत ?

ये कब कोई जान पाया है ?

तुम महफ़ूज रहो अपने

रिवाज़ों की दुनिया में !

यादें,आँसू,आहें,ज़ख्म दिल की बस्ती में

भला किसने क्या पाया है

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