Wednesday, June 23, 2010

सीपियाँ


तितलियों की बस्ती में, फूल ने खुदकुशी कर ली.

गली में रोज मचाता था वो जागते रहो का शोर

आज सुबह उसी ने, राहजनी कर ली.

यारब अब क्या होगा इन मुसाफिरों का ?

सुना है! मांझी ने तूफ़ा के यहाँ नौकरी कर ली.


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चाँद पे तेज़ाब फेंक भाग गया

कोई कल रात.

इतने तारों की भीड़ में कहाँ उसे खोजें ?

अंधेरे का फ़ायदा उठा भाग गया

कोई कल रात.

कहाँ-कहाँ ढूढेंगे सबूत आप

जिस चौराहे पर हुआ था बलात्कार

वहाँ मंदिर बना गया

कोई कल रात .


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नीर वही

तीर वही

बस पानी की रवानी

बदल गयी है.

पीर वही

कसक वही

बस दर्द की कहानी

बदल गयी है.

मैं वही

तुम वही

बस दुनियादारी

बदल गयी है.

क्या क्या बदल गया ?

आके देखो आदम तुम

प्रेमी वही

प्रेमिका वही

बस, प्यार

बदल गया है.

बाज़ार वही

खरीदार वही

बस कारोबार

बदल गया है.

Monday, June 21, 2010

इंसानियत की खुशबू से बावस्ता न रहे

वो कागज के फूलों से घर को सजाने निकले.

मेरे घर में आग लगी देख सबसे पहले

मोम से बने लोग मुझे बचाने निकले.

उनकी जफ़ा के किस्से शहर में रवां हैं

फिर किसके भरोसे वो दिल को लगाने निकले.

वही शोख नज़र, वही अल्हड़ बांकपन

यूँ तुमसे बिछुड़े ज़माने निकले.

दरख़्त वो ही हर बार क्यूँ गिर गए

जिन पर हम नशेमन बनाने निकले.

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मैं जिसे देखकर ताउम्र मुतासर रहा

वो बहते पानी पर बनी तस्वीर निकली

लोग जिनकी नाज़-ओ-अदा के दीवाने थे

बेवफाई ही उस बुत की तासीर निकली

हम जिनके तसव्वुर में घूमा किए रवां-रवां

सबसे हँस कर मिलना उस सितमगर की आदत निकली

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भटकन इतनी थी ज़िंदगी में

सारी ज़िंदगी ही भटकन बन गयी

वस्ल की एक घड़ी ने किया है वो काम

एक छोटी सी रात ज़िंदगी भर की तड़पन बन गयी.

.........

जिनसे हुए थे वायदे ताउम्र साथ निभाने के

वो साथ रह कर भी अजनबी हो गए.

एक के बाद एक, मेरे सभी ख्वाब

बस मुल्तवी हो गए.

अपने चाक गरेबाँ का ग़म नहीं मुझे

चल तेरे अरमान तो पूरे हो गए.

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अब जफाओं का हिसाब कौन रखे

ज़ख्म खाने की हो गयी आदत अपनी.

रातों का रोना भी क्या रोना

जब ग़म की क़ैदी है हर सुबह अपनी.

नहीं ये उनकी बददुआ का असर नहीं

बस होनी थी सो हो गयी ज़िंदगी तबाह अपनी.

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पेशा-ए-साकी बदनाम न कर

मेरे जाम में तू तंगदिली न कर.

तू मुहब्बत से पिलाये जा साकिया

आज ज़हर भी तेरे हाथ से हो जाएगा बेअसर.

तू जवाँ है मिल जायेंगे तुझे दीवाने सौ

मैं कहाँ ले जाऊँ अपना दीदा-ए-तर.

तू आबाद रहे मेरी दीवानगी का यही है मक़सद

अपनी तो होती आई है आगे भी हो जाएगी बशर.

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आज फिर दिल में तन्हाइयों को

बुलंद करने का ख्याल आया.

इश्क़ को जिस्मानी कैद से रिहा

करने का ख्याल आया.

न कोई खुशी सी खुशी है

न किसी ग़म का ग़म

फिर क्यूँ बेखबर मुझे

बारहा तेरा ख्याल आया

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कभी सोचा न था हम तुम इतने

नज़दीक रह कर भी

दूर हो जायेंगे.

समाज की दीवारों पर लग जायेंगे

रिवाजों के काँटे और हम तुम इतने

मजबूर हो जायेंगे.

कुछ दबी जुबां में कहते हैं

कुछ आँखों में कहते हैं

पता न था, हम-तुम इतने

मशहूर हो जायेंगे.

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न आंसू के पैगाम उन तक पहुँचे

न आहों की आवाज पर ही वो आए.

क्या मेरा यार इतनी दूर है

दिल की आवाज भी नहीं सुन सकता.

सुबह होने को है अब तो आ जाए

अब मैं तारे भी नहीं गिन सकता .

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लो दर्द की पूँजी भी मुझसे छिन गयी

अब तो दवा ही मेरी दर्द बन गयी

चाहे जीवन काल को तू छोटा दे

आदमी को दर्द की दौलत लौटा दे

वैभव विलास का जब हो जाए बोझ भारी

आँसू उभर कर कहे व्यथा सारी

दर्द ही नहीं जिस महफिल में

वो फिर किसका निदान है

पीड़ा की अभिव्यक्ति ही तो मधुरतम गान है

रात नाम है निश्चय का

कुछ करने की तैयारी का

पश्चाताप का और संतोष की सवारी का

रात मनुष्य की सुप्त की सुरा है

रात से बढ़ कर नहीं सुबह है

कहो तुम यदि दर्द बुरा है

तो जान लो इतना

दर्द का न होना दर्द से भी बुरा है

सीपी मोती भरी


एक पूरी पीढ़ी ही अनपढ़ रह गयी

कम्प्युटर लेकर देर से आए नेता जी

मेरे शहर में.

भ्रष्टाचार की आग फैली है सब ओर

फायर ब्रिगेड कौन बुलाये, सन सेंतालीस से खराब हैं टेलीफ़ोन

मेरे शहर में.

अभी नेताजी अफ्रीका समस्या उठा रहे हैं अमरीका में

हो रहें हैं तो होते रहें कत्ल इंसान

मेरे शहर में.

बाज़ार भाव बहुत नरम है

गुर्दा देखेंगे या खून लेंगे

आदमी की भारी सेल लगी है

मेरे शहर में.



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देवदार के वृक्ष तले

निशा जब पलक खोले

प्रिय आकर मिलना

दूर पपीहा जब बोले

जब हो संध्या उदास-उदास

कोई न हो नयन वातायन के पास

प्रिय आकर मिलना

जब टूट जाये अपनों का विश्वास

समाज का कोई रिवाज जब तुम्हें घेरे

अग्नि बाध्य करे लेने को फेरे

प्रिय आकर मिलना

जब दूर हों मुक्ति के सवेरे

व्यर्थ लगे जब यौवनावकाश

क्रूर काल देने लगे अपना आभास

प्रिय आकर मिलना

जब शृंगार करे तुम्हारा उपहास

बुझ चुके हों जब सारे दीप

बिछुड़ जाए मोती से सीप

प्रिय आकर मिलना

जब प्रलय हो समीप


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दुनियाँ की इस भीड़ में

औरों के दर्द से कराह रहा हूँ मैं

किसी का बनने की चाह में

अब अपना भी नहीं रहा हूँ मैं.

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मेरे मर्ज-ए-इश्क़ की दवा हो गयी

हिज्र की रात की आखिर सुबह हो गयी

मैं क़ाफ़िर हूँ, क़ाफ़िर ही सही

मेरी तो महबूब ही मेरी खुदा हो गयी.

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माली ने लूटा है आशियाँ मेरा

मेहरबानों ने लूटा है जहाँ मेरा

हमसफ़र थे जो कल तलक

आज उन्ही ने लूटा है कारवाँ मेरा

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दवा मत दे मुझे मर्ज कुछ तो रहने दे

करार मत दे मुझे दर्द कुछ तो रहने दे

इतनी मेहरबान न हो मुझ पर

इंसान और खुदा में फर्क कुछ तो रहने दे

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मेरे मंदिर की तू प्रतिमा

मेरी महफिल की तू शमा

कहाँ नहीं तू मौजूद

मैं शरीर तू आत्मा

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अपने सपनों का नायक बना लो मुझे

अपने गीतों का गायक बना लो मुझे

मैं तो बस ये चाहता हूँ

किसी भी तरह अपने लायक बना लो मुझे


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मंदिर के बाहर भिखारियों को देख

लौट आया हूँ मैं

ये सोच के कि मंदिर में जाते हैं वही

जिनके दिल में भगवान नहीं


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तुम यूँ तो उस रात मेरे शहर में न थे

फिर भी गुनगुनी धूप का सुगंधी एहसास था

तुम मना कर गए थे तो क्या

फिर भी आओगे ये मेरा अंधविश्वास था

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तेरे नाम से होती है सुबह अपनी

तेरे नाम से होती है सहर अपनी

अब तो तेरी याद बन गयी है

ज़िंदगी भर की धरोहर अपनी

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कभी तुम से सुलह की

कभी खुद से जिरह की

गरज कि हर शब-ए-गम की

हम ने रो रो के सुबह की

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हर सुबह कोहरा क्यूँ है

हर रात अमावस क्यूँ है

तुम रोशनी का वादा ले उतरे थे ज़िंदगी में

फिर भी यह दिल उदास क्यूँ है.

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क्यों दुहाई देते हो

उनकी नाजुकी और दरियादिली की

दरअसल सच के और नज़दीक लगता है

गर पत्थर में तराशो मेरे महबूब को

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तुझे क्या खबर तुझ से मुलाकात के

क्या क्या आसार खोजा करता हूँ मैं

मनाता हूँ तू कुछ भूल जाए

और आधे रास्ते देने आऊँ मैं.


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नवजात बच्चों की

लाशें मिली हैं

मेरे शहर का

आईना है ये झील


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आज इन गेसूओं में खो जाने दो मुझे

आज इन आँखों में डूब जाने दो मुझे

फिर तुम न जाने किस जनम में मिले

आज इस चेहरे पर मिट जाने दो मुझे


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यूँ तो दिल और भी टूटे थे इस दुनियाँ में

फर्क बस इतना था

उनके शीशा-ए-दिल पत्थर ने तोड़े थे

और मेरा पत्थर दिल शीशे ने तोड़ डाला

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ज़ुल्फ़ के साये देखे हैं हमने

बाहों के दायरे देखे हैं हमने

ओ नाजनीन ! सुनो जरा

तुमसे पहले भी हसीं देखे हैं हमने

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आज खुल जाने दो जुल्फों को

आज टूट जाने दो गजरे को

फिर नज़र अफ़साना-ए-दिल न कह पाएगी

आज बिगड़ जाने दो कजरे को

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बाद-ए-सबा ने भेजे हैं सलाम तुझे

रिमझिम फुहारों ने भेजे हैं सलाम तुझे

इक बार नज़र उठा के मेरा भी सलाम ले

ये माना सितारों ने भेजे हैं सलाम तुझे

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दूर क्षितिज पर जब दिन ढले

साँसों के स्पर्श से जब तन जले

आओ समाज की सीमा से आगे बढ़ चलें

और उस नीम के वृक्ष तले हमतुम गले मिलें

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बहार पर कर्ज़ है तेरी नज़रों का

रात चुरा रही है रंग तेरे कजरे का

संभाल अपनी जुल्फें

गुलशन उड़ा रहा है नूर तेरे गजरे का



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निकला था सफर पर मैं

पा के हमसफ़र इतने सारे

इक मोड़ पर देखा जो पीछे

साथ मेरे गुबार-ए-कारवाँ भी न था.

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मेरी मौत की खबर सन

यार ने कुछ यूँ मुँह छुपाया

कोई जान न पाया

वो रोया है या मुस्कराया

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शुक्रगुजार हूँ तुम्हारी इन आँखों का

आज फिर उन्होने

मेरे बहकने का इल्ज़ाम

अपने सर ले लिया

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पपीहे की रटन से

चूल्हे की घुटन

तक की दूरी ने

छीन लिया

तुम से तुम्हारा यौवन

मुझ से मेरा दीवानापन.

Monday, June 14, 2010

रीमिक्स यानि शुद्ध मिलावट

कोई 'भाई' जब बनता है
थोड़ा 'हफ़्ता' लगता है
थोड़ा 'मर्डर' होता है
बम-गोले पड़ते हैं
किडनेपिंग-फायरिंग होती है
खूब वसूली होती है
ऊं..ऊं ..आं..आं ...ऊं ..
एक्ट्रेस् कोई जब फेमस होती है
थोड़ी स्ट्रगल होती है
खूब बोल्ड होती है
फिर एक 'डबल'होता है
और फिल्म की कोर्ट-कचहरी होती है
ऊं.ऊं...आं...आं...ऊं...
सावन की झड़ी जब लगती है
सड़कें टूटी-फूटी रहती हैं
जनता पागल होती है
मंत्री की पौ बारा होती है
बाढ़ की चाहत होती है
उसी में राहत होती है
ऊं..ऊं...आं...आं...ऊं..
बुढ़ापे की ऋतु जब आती है
चाँद गंजी होती है आँख मंदी होती है
सर्दी-खाँसी होती हैजोड़-जोड़ में पीर रहती है
रात-दिन मालिश होती है
ऊं..ऊं..आं..आं..ऊं...

Sunday, June 13, 2010

भूले-बिसरे

ये ज़िंदगी छोटी है निकलने को इस तिलिस्मी जहाँ से
हसरतों के सैलाब उमड़ते रहे धुआँ-धुआँ से
तस्सुवर में भी सरगोशयों के आदाब हुआ करते हैं
हर सोनेवाले के नसीब में नहीं हसीन सपनों के खजाने
चेहरे से लगाया था अंदाज़ उनकी शराफत का
किस से करें गिला,शह से पहले ही हम मात खा गए
अरे ओ मुँह फेर के जाने वाले, जान ले इतना
काफिले अभी और भी गुजरेंगे मेरी राह से
...................

मुझे यह प्रयोग भी कर लेने दो
जीवन बीता बाट जोहते
पाने जिस एक क्षण को बढ़ आया आगे मैं,
छोड़ एक युग ,पीछे आ पहुँचा है वह क्षण प्रिय मत रोको
वियोग में तपी है उम्र सारी
आज मुझे संयोग भी कर लेने दो.
मुझे यह प्रयोग....
है दर्द न कोई जगत में जिसकी दवा नहीं
दर्द से पा गया मुक्ति वही जो जगत में रमा नहीं
है बीता जीवन मेरा उपचार में
प्रिय आज मुझे यह रोग सर लेने दो
मुझे यह प्रयोग...
दी प्रकृति ने वाणी मुझे केवल बुद्धि का गान करने को
नहीं हुई अभी वह लिपि विकसितहृदय का ध्यान धरने को
रहे विमुख हृदय उद्गारों से अंग मेरे
ए मेरे चेतन, अवचेतन आज मुझे हृदय से संयोग कर लेने दो
मुझे यह प्रयोग..
मेरे अंतस की पीड़ा ने सीखा दिया मुझे मौन रहना
जग समझा इसे मेरा अहम में बहना
मेरे प्रेम को वैर रहा वाणी से
मेरे प्रेम को तो प्रेम रहा मात्र प्राणी से
जब तुम ही न जान सके तो और जानेगा कौन
हाय मेरा शत्रु बन गया मेरा ही मौन
" मैं तुम्हें प्यार करता हूँ "
चलो मुझे यह ढोंग भी भर लेने दो
मुझे यह प्रयोग भी कर लेने दो
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मेरा जीवन एक लंबा सिलसिला है यातनाओं का
मेरी दुनियाँ में भला क्या काम है भावनाओं का
तुम फूलों में पली, मैं काँटों में
तुम्हारी हर इच्छा पूरी हुई मैंने गला घोंटा है अपनी कामनाओं का
दुख और बेबसी के संयोग से जन्मा
हाँ मैं ही हूँ वो मनु-पुत्र छलनाओं का
यह सब किताबों में होता है तुम मेरा साथ कब तक दोगे
संसार तेरा है, मेरा नहीं यह कल्पनाओं का
मेरा जीवन एक लंबा सिलसिला है भावनाओं का
..................

बिताये हैं रात्रि के पहर सारे
गिन गिन के आकाश के तारे
अश्रुपथ बुहारते रहे
कान जोहते रहे कोई अब पुकारे.
निशा ने प्रभात से मिलने को
क्या मुझसे अधिक आँसू बहाया है
किन्तु फिर भी भोर ने आकरअपना वचन निभाया है.
और कितने युग बितायें हम प्रतीक्षा में तुम्हारी
अब तो आ जाओ कि पूरब दिशा हँस रही प्रीत पर हमारी
पक्षीगण उड़ चले मुझे दे उलाहने
चाह को पुनः दंडित किया व्यथा ने
मेरे श्वास निश्वास में बसे हो तुम
कुछ तुम भी मुझे याद कर लो
मैं और कितना अपना दर्द कहूँ
कुछ तुम भी मेरे आँसू का अनुवाद कर लो
.........................

कैसे कैसे लोग बेशरमी से उनका ज़िक्र करते हैं
जब से उनको शरमाना आ गया
आँख क्यूँ अब उनसे हटती ही नहीं
जब से उनको नज़रें झुकाना आ गया
सरे शाम लो रात हुई जाती है
उनको ज़ुल्फ़ लहराना आ गया
समंदर की गहराई है उनकी आँखों में
अब उन्हें भी राज़ छुपाना आ गया
मेरा महबूब उतर रहा है डोली से
मेरे घर में भी मौसम सुहाना आ गया
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किसी खुशनुमा शाम को और खुशनुमा बनायें
चलो एक शाम हम साथ साथ बितायें
न मैं कहूँ तुम्हें ज़िंदगी न तुम कहो मैं तुम्हारा सबकुछ
न हम साथ साथ जीने मरने की कसमें खायें
चलो एक शाम हम साथ साथ बितायें
किसी खुशनुमा शाम को और खुशनुमा बनायें
न तुम मेरे लिए ज़माने से करो बगावत
न आसमां इतना करीब कि तारे तोड़ लाएं
एक दूसरे को बेहतर जानें इस समझ के सिलसिले जमाये
किसी खुशनुमा शाम को और खुशनुमा बनायें
न कोई आरज़ू, न कोई इसरार हो
न हम एक दूसरे की कमियाँ गिनायें
हँसें,चहकें, और मिलके गायें
एक शाम ऐसी भी हम साथ साथ बितायें
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Saturday, June 12, 2010

भूले - बिसरे

अलील के क़दह में मुझे मौत पिला दे

मगर ए खुदा कमसकम मेरे दुश्मन को ज़िलादे

ये साकी ही ऐसा है पैमाने में ज़हर मिला देता है

मैं लाख इंकार करूँ ये बोतल की कसम खिला देता है

मैं पहलू-ए-यार से उठ कर भागता हूँ

मगर वो हाथ थाम कर पिला देता है

कुछ भी कहो आज दो घूंट जरूर लूँगा

ज़िद करते हो तो कल से छोड़ दूँगा .

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तमन्ना नहीं रांझा या मजनूँ बनूँ

तमन्ना नहीं किसी की रातों का जुगनू बनूँ

हसरत अगर थी तो सिर्फ एक

तमाम उम्र उसी का रहूँ मैं जिसका बनूँ

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पाजेब से उनकी फिर कोई बदली टकराई

नासमझ दुनियाँ बोली बारिश आई

आज फिर उनकी क़ातिल अदा ने किसी परदेसी को लूटा है

आज फिर पूरब पे काली घटा छाई

खबर ये सुनने में आई थी

किसी दीवाने ने उनके लिए खून की होली मचाई थी

हमने पूछा माजरा क्या है वो नज़ाकत से बोले

"कुछ नहीं उस दिन जरा महावर रचाई थी "

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ये उलझे-उलझे से गेसू

ये दबी-दबी सी मुस्कराहट

ये झुकी-झुकी सी पलकें

यहीं कहीं देखो,इन्ही में

कोई मेरे दिल का चोर निकल आएगा

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बदकिस्मत ही सही मेरी तक़दीर हो फिर भी

खूबसूरत ही सही मगर ज़ालिम हो फिर भी

बेवफ़ा ही सही मेरी महबूब हो फिर भी

हाथ में खंजर नहीं तो क्या मेरी क़ातिल हो फिर भी .

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साथ तू रहे तो बंजर भी हरियाली है

साथ तू रहे तो अमावस भी ऊषा की लाली है

साथ तू रहे तो मैं मर के भी जी लूँगा साथ

तू रहे तो विषघट भी अमृत की प्याली है

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ढूँढ लूँगा निदान मैं,

अपनी पीड़ा का तेरे गान में

ज्योति जो एक झोंके से बुझ गयी,

वो नहीं मेरी प्रेरणा मैं तो अब तक जीया,

देख के वो दीया जो जलता रहा तूफ़ान में

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फुरसत हुई तो सुनुंगा तेरी भी मधुर वाणी

अभी तो सुना रहा जली-कटी मुझे जग का हरेक प्राणी

समय मिला तो निहारूंगा रूपश्री तेरे यौवनधन को

लेकिन अभी तो देखना है मुझे अपने ही तन-मन को

खाली हुआ तो तेरे दिल से भी दिल को लगाना है

परंतु अभी तो मुझे पत्थर से प्यार उगाना है

विश्राम में पीऊँगा अमृत तेरे नयन का

क्षमा करना अभी तो पीना है आँसू मुझे हरेक नयन का

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ये फ़ासला तुमसे घटाया नहीं जाता

हमारा ये दुख बंटाया नहीं जाता

आखिर कब तक ये कह के टालते रहोगे

किस्मत का लिखा मिटाया नहीं जाता

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दवा मत दे लेकिन मैं मर्ज भी नहीं चाहता

करार मत दे लेकिन मैं दर्द भी नहीं चाहता

यूँ किसी के दिये पे किसकी बशर हुई आजतक

प्यार मत दे लेकिन मैं नफरत भी नहीं चाहता

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तुम्हें चाह के दौलत और दुनियाँ की परवाह छोड़ दी

तुम्हें पा के चाँद-सितारों की हसरत छोड़ दी

तुम्हारा प्यार पा कर सच पूछोतो

मैंने हर तमन्ना छोड़ दी .

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पेरिस की एफिल टावर गिर पड़ी

ताज महल बालू में बदल गया

अशोक की लाट को जंग लग गया

कुतुब मीनार पृथ्वी में धँस गयी

चीन की दीवार ज़मीन में फंस गयी

मिस्र के पिरामिडो में से ममी निकाल भागे थे

जाँच की तो पता लगा आज फिर किसी ने किसी को धोखा दिया था

किसी का दिल तोड़ा था

(नवभारत टाइम्स 4 जून 1972).

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तूफ़ा ने मुझे किश्ती

चलाना सिखा दिया

डूबने ने मुझे

तैरना सिखा दिया
(नवभारत टाइम्स 1 अक्तूबर 1972 )

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नहीं समझी सरकार

जनता की पीर

निर्धन पीता रहा अपना ही रक्त नीर

हम पीछे खींचते रहे मूल्यों को

मगर महँगाई बन गयी 'द्रोपदी का चीर'


(नवभारत टाइम्स 24/2/1974 )

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घी तेल गेहूँ कोयला

दूध और डबल रोटी

बन गए है 'बाली' जैसे

ग्राहक के सामने आते ही दुगने हो जाते हैं (केवल दाम में )

*
हर बार हमारी सरकार

प्रयत्न करती है न रहें बेकार

किन्तु हर बार खाली जाता है उसका दांव

गरीबी बन गयी है 'अंगद का पाँव'

(नवभारत टाइम्स 12/5/1974 )

..................
(पेरोडी -- खिलौना जान कर...)

नवभारत टाइम्स 9/7/1973


बस की क्यू जानकर तुम तो मेरा दिल तोड़ जाते हो

यहाँ राशन में खड़े लोगों की तरह मुझे किसके सहारे छोड़ जाते हो

सुनो मेरे दिल से न लो बदला तेल और कोयले का

डालडा तो मैं छोड़ चुका अब तो आदी हो गया हूँ,कुलछे-छोले का

कि मैं चल भी नहीं सकता और तुम सोने के भाव की तरह दौड़ जाते हो

बस की क्यू जानकर ...

था जिस 'पे-कमिशन' का मुझको सहारा

उसी ने मुझको पाक दरिंदों की तरह मारा

गुजारा मेरा मुझसे चलता नहीं कर्ज़ बढ़ जाता है

सिगरेट और ब्लेड की तरह हर बार खर्च तुम्हारा बढ़ जाता है

मैं पाँच पैसे का ग्लास पी नहीं सकता और तुम

ब्लैक में 'कोक' पी जाते हो

बस की क्यू जानकर ....
.................
मेरे विचार बंद हैं दिमाग में

जैसे कोई अचार,डिब्बे के किसी भाग में

प्रकट नहीं होते विचार खुलता नहीं अचार

विचार जवान होते हैं अचार पक जाता है

फिर भी विचारों का कलेवर नहीं होता

अचार का सेवन नहीं होता

मैं क्रुद्ध हो जाता हूँ गंभीर, अप्रसन्न होता हूँ

और घुट जाते हैं विचार

जैसे डिब्बे में बंद सड़ जाता है अचार
(नवभारत टाइम्स 6/4/1975 )

.................................


ये क्या हो गया देश का हाल कदम कदम पर आंदोलन जगह जगह हड़ताल

सत्याग्रह का नाम ले असत्याग्रह हो रहा भूखहडताल की आड़ में दुराग्रह हो रहा

मंत्री से संतरी तक चाहता है वेतन वृद्धि आप लाख विरोध करें छोड़ेंगे नहीं ये अपनी कुर्सी

क्या यही था शहीदों का वतन,क्या यही था गांधी का स्वप्न एक पर नहीं खाने को रोटी,

दूसरे के पास लाखों का धन

एक बहाता शाम तक पसीना,

फिर भी अभिशिप्त है उसका जीना कौन है वो ? कहाँ है वो ?,

जिसने हक इनका छीना

आज विद्यार्थी का अनशन है,तो कल अध्यापकों का प्रदर्शन

चाहे रेल का चालक हो,या हो यान का पाइलट

कमेटी का कर्मचारी हो या बैंक का क्लार्क

सबकी है आवाज यही

महँगाई घटाओ,गरीबी हटाओ,वेतन बढ़ाओ

किन्तु क्या इसका दोषी हर व्यक्ति स्वयं नहीं

जिसको मौका लगता है छोडता नहीं वो अपना लाभ

एक हाथ से विरोध करता सरकार का,दूसरे से ढूँढता अपना स्वार्थ

एक शोषक शोषण करता असंख्य शोषितों को

एक विश्वासघात असफल कर देता सभी कोशिशों को

एक व्यापारी ठगता क्या असंख्य ग्राहकों को नहीं

एक सिंह मारता क्या असंख्य मृगशावकों को नहीं

फिर दोषी कौन ? क्या तुम स्वयं नहीं ?

उठो कि जैसे तूफ़ान उठता है,बढ़ो कि जैसे सूर्य बढ़ता है

ढूँढ लो अपने अंदर बैठे लुटेरे को,दूर कर दो हृदय में छाए अंधेरे को

मार्ग की हर बाधा को हटा दो,जो बाँधे तुम्हें ऐसे बंधन को मिटा दो

जब कोई नियम तुम्हें व्यर्थ सताये

शासक अपने अत्याचारों को समय का चलन बताये

समझ लो महत्ता समाप्त हो गयी शांति की

समय को आवश्यकता है क्रांति की

.
( नवभारत टाइम्स 13/1/1974 )



प्रत्येक का है बस यही अरमा

मिले एक अच्छी सी माँ

जो दुगनी करे खुशी बाँट ले बेटों का सदमा

जीजाबाई सी आदर्श होदेख जिसे मन में हर्ष हो

आँखों में बसे जिसके सुख-संसार

हाथों में जिसके रहे हमेशा आशीषों का आगार

वाणी से जिसकी आ जाए हमारे जीवन में बहार

हमारी हर असफलता पर वो दे नवचेतन का उपहार

भरी रहे हमारे जीवन में उसके मधुर प्यार के फुहार


(नवभारत टाइम्स 26/8/1973)


.......................
देख के मुझे उन्होने नज़रें झुका लीं

मगर हमसे मुँह मोड़ा न गया

हम थे तैयार दुनियाँ तलक छोडने को

हाय उनकी शर्म उनसे ये समाज छोड़ा न गया

उनके एक इशारे पर तोड़ दी मैंने मज़बूत रिश्तों की बेड़ियाँ

हाय उनकी नजाकत को क्या कहूँ उनसे एक रिवाज तोड़ा न गया

.................
दिन ढल गया है, रात से क्या कहें

ज़माना बदल गया है, आप से क्या कहें

लाख चाहा है भूलना मैंने आपके जाने के बाद

अब आँसू छलक गया है तो आँख से क्या कहें

.....................


आह भर तो सकता हूँ, मगर दर्द को दबाये जा रहा हूँ

साथ रहना कोई रिवायत तो नहीं,फिर भी निभाये जा रहा हूँ

लहू जिगर का समझ के मय,हर महफिल में पीए जा रहा हूँ

यूँ हसीन और भी हैं ज़माने में,न जाने क्यूँ मैं तेरा ही नाम लिए जा रहा हूँ.

.......................


दौड़ने से पहले चलना तो सीख लो *

चलने से पहले गिरना तो सीख लो

मैंने देखी हैं ज़िंदा लाशें

जीने से पहले मरना तो सीख लो

*
उनका कोई तत्व नहीं जीने में *

वे बोझ हैं धरती के सीने में

जो श्रम का मूल्य नहीं समझे

न जाने क्या शक्ति है पसीने में


किसी ने युद्ध किया किसी ने संधि *

किसी ने कहा किसी भी प्रकार से जीतो

मगर मैं कहता हूँ शत्रु को

अपने उपकार से जीतो

( * नवभारत टाइम्स 31/3/1974 )
.........................


तेरे बगैर जीवन ?

केवल दिनों का काटना भर है

ले रहा हूँ मैं हर साँस जैसे

तेरी धरोहर है.

मैं तो बिका हूँ प्रेमनगरी में बेमोल

प्रिय एक बार आके कर जाओ मेरे प्राणों का मोल .

या कह दो वो भ्रम था भावनाओं का बंधन था

मगर मैंने महसूस किया है छू के देखा है

मैं कैसे कह दूँ वो सब स्वप्न था

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मृत्यु कामिनी है यदि बांध लो उसे प्रणय-पाश में

मृत्यु भामिनी है यदि तो तिलक करा लो ललाट में

मृत्यु मदिरा है यदि तो पी लो बूंद प्रत्येक

मृत्यु विष है यदि तो देखना रह न जाए बूंद कोई एक

मृत्यु व्रक्ष है यदि लिपट जाओ उस से लता की भाँति

मृत्यु भ्रम है यदि तो अपना लो ये सुंदर भ्रांति

मृत्यु किसी सुंदरी का मुख है यदि तत्क्षण ही ढूंढ लो मुक्ति उसके चुंबन में

मृत्यु कमनीय काया है यदि स्वयं लिपट जाओ उसके आलिंगन में

ओ राही क्यों भटक रहा, ये जग मोह का बंधन है

क्यों भूल रहा जानकर जो सत्य है

मृत्यु अपने आप में एक जीवन है .

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तुम आए कि अंधे को आँख,

पतझड़ पे वसंत वीराने में बहार

और ज़िंदगी आ गयी पर्दे में

तुम आयीं कि अपढ़ को ज्ञान,अंधकार में उजाला

घर में खुशी और जान आ गयी मुर्दे में

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एक आँसू हमारा था जो आँख से संभला नहीं

एक आँसू तुम्हारा था जो आँख से निकला नहीं

डाल दी है तोहमत मैंने मुकद्दर की पेशानी पे

हक़ीक़त ये है मुझे तुमसे कोई गिला नहीं

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प्रिय भूल न जाना वे क्षण

किए थे जब हरी दूब पर बैठ हमने कुछ प्रण

पूछेगा प्रश्न बीता हुआ कल,आने वाले कल से.

मांगेगी उत्तर हर लहर, उठते गिरते झरने की कलकल से

क्या दोगे तुम तब ? इसलिये कहता हूँ

बिसरा न देना मेरा नाम अपने स्मृति पटल से.

रही एक ही जान, चाहे रहे हों दो तन

प्रिय भूल न जाना ..

कोई आश्चर्य नहीं उन स्थितियों में

हम तुम दोनों बदल जाएँ अपनी परिस्थितियों में

संभव है तुम मग्न हो जाओ विजयोल्लास में

या दूरी बन जाए बैरिन हमारे मिलाप में

लेकिन बैठे होगे जब तुम अवकाश में

मुझे विश्वास है मेरी याद

मेघ बनके घिर आएगी तुम्हारे हृदयाकाश में

हाय कैसे कट पायेंगे वे दिन

प्रिय भूल न जाना ...

माना भौतिकता के दायरे में ज़िंदगी बंधी है

किन्तु सुना है मैंने ये भी हृदय से हृदय की डोर बंधी है

होने दो अपने हृदय पर मेरी स्मृति का हिमपात

रुको! मत हटाओ मेरी यादों के हिमकण

क्या तुम भूल गए वे क्षण

किए थे जब हरी दूब पर बैठ हमने कुछ प्रण

प्रिय भूल न जाना ...
(कॉलेज पत्रिका 1976 ).............................


हृदय दर्पण के हर कण-कण पर

प्रतिबिंब है तुम्हारा.

मेरी हर साँस पर

प्रिय ऋण है तुम्हारा.

मैं कौन ? कहाँ ?क्या अस्तित्व मेरा

सुना है जग को गति देता है

संकेत तुम्हारा

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चिंगारी दबेगी नहीं ये माना मैंने

लेकिन शोलों को यूँ हवा देना भी ठीक नहीं.

दर्द से लेते हैं जो काम इलाज़ का

उनको यूँ दवा देना भी ठीक नहीं.

जो तुम पर जान लुटाना चाहते हैं

उनको लंबी उम्र की दुआ देना भी ठीक नहीं

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बिखरे हुए थे यूँ तो कई आँचल हवा में

मैंने वो थाम लिया जो तेरा दामन था.

सपने क्योंकि टूट जाते हैं इसलिये अब आदमी लौट आता है

सपनों को विदा कर वहीं, जहाँ से वह चला था.

लेकिन मैं उसके पीछे हो लिया जो तेरा स्वप्न था.

खड़े हैं बहुत से प्रश्न और समस्याएँ हाथ बाँधे,दम साधे,

पहले मैं.. पहले मैं चिल्लाते

लेकिन मैंने वो उत्तर ढूढ़े जिन में तेरा प्रश्न था.

किसी में था सघन वन,किसी में था मधुर उपवन

कहीं धन था,कहीं तन,कहीं प्रताड़ना,कहीं आलिंगन

लेकिन मैंने वो अपना लिया जो दुनियाँ का चलन था

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मेरी कसम है तुमको, जज़बात को सुर मत देना

मेरे भटकते प्यार को, तुम अपना दिल मत देना

मंज़िल पर पहुँच कर लोग पूछेंगे तुमसे तुम्हारी कामयाबी का राज़

उस मुकाम पे तुम मेरा नाम मत लेना

अहमियत मंज़िल की है,राह की,राही की है

हमराही की नहीं.

इसलिये कहता हूँ तुम मुझे अहमियत मत देना

मेरी कसम है तुमको,जज़बात को तुम सुर मत देना

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मेरा दर्द मुझे जीने नहीं देगा

तेरी याद मुझे मरने नहीं देगी

ज़माना बड़ा ज़ालिम है ए दोस्त

आज अगर हम नहीं मिले कल ये दुनियाँ हमे मिलने नहीं देगी

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तेरी बेवफाई का गिला

मैं किस से करूँज़माना बेवफ़ा है

अब तो गिला है मुझे

अपनी ही वफ़ा पर

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यूँ तो तुमसे विछोह हुए एक युग बीत चला है

फिर भी नयन-नत तुम्हारी छवि मेरे नैनों में बसी है

लगता है तुम्हारी मधुर हँसी की खनक

मेरे कानों ने अभी-अभी सुनी है

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बधाई पत्रों में सिमट के रह गए

हमारे रिश्ते

कभी थे हर पल के अब वार्षिक हैं

हमारे रिश्ते

होठों पे मुस्कान चिपकाए ढोने पड़ रहे कितने भारी हो गए

हमारे रिश्ते

सहारे लेकर नातों का मत पींग बढ़ाना सुनते हैं बड़े कमजोर हैं

हमारे रिश्ते

तुम्हें कोई नाम,कोई संबोधन नहीं मिला तो क्या

कुछ न हो कर भी सब कुछ थे

हमारे रिश्ते