अब जीने के यही कुछ असबाब हैं
मेरे सिरहाने तेरे कुछ ख्वाब हैं
गँवा के खुद को, तुझे पाया है
तब जाकर कहीं होश आया है
क्या कुफ़्र है ? और क्या इबादत ?
ये कब कोई जान पाया है ?
तुम महफ़ूज रहो अपने
रिवाज़ों की दुनिया में !
यादें,आँसू,आहें,ज़ख्म दिल की बस्ती में
भला किसने क्या पाया है