Wednesday, June 19, 2013



मतलबी, खुदगरज़, धोखेबाज़, ज़िंदगी
कितने नामों से नवाज़ती ज़िंदगी
शहर के कोलाहल में एक पगडंडी सी ज़िंदगी
मेरी बस्ती से तेरे घर को आती ज़िंदगी
मुहब्बत न थी कभी, न सही, मेरा वहम ही सही
अलबता मुझ पर अक्सर तरस खाती थी ज़िंदगी

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