Sunday, March 3, 2013



बहुत शौक़ था इन आंखो को रोशनी का
लो जलता हुआ अपना आशियां देख लो
ज़िंदगी आने का वादा कर कहां रुखसत हुई
कैसे होती हैं इंतज़ार में आंख पत्थर देख लो
जिस उम्मीद में थमी थी सांस लो वो भी खत्म हुई
नामावर कसम खा सारे खत वापस दे गया
ऐसा कोई पता ही नहीं शहर में
यक़ीं न हो तो खुद जा कर देख लो

No comments:

Post a Comment