इक तरफा मुहब्बत में कोई हम सा न पाओगे
हमने कुल ज़माने से मुहब्बत की है
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अब जीने के यही कुछ असबाब हैं
मेरे सिरहाने तेरे कुछ ख्वाब हैं
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गँवा के खुद को, तुझे पाया है
तब जाकर कहीं होश आया है
क्या कुफ़्र ? और क्या है इबादत ?
ये कब कोई जान पाया है ?
तुम महफ़ूज रहो अपनी
रिवाज़ों की दुनिया में
यादें, दर्द, आँसू, ज़ख्म
जीने को मेरे पास बहुत सरमाया है
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