ravikikavitayen
Tuesday, March 13, 2012
तुम्हें निमंत्रित करने की
लुभाने की चाह मन में
अनगिनत बार उठी है
मैं चाह को भी तेरी तरह
चाह कर ही रह जाता हूं ...
पीर हृदय में बिन बुलाई आ बसती है
अब तो पीर ही मुझे
लुभा-लुभा के ताना कसती है
किसी और को न बुलाना
ये दिल तुम्हारा अब मेरी बस्ती है
No comments:
Post a Comment
Newer Post
Older Post
Home
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
No comments:
Post a Comment