ऐ नामावर ! नाम तक तो ठीक था तूने क्यों इस क़ातिल को मेरा पता बता दिया सोया था दर्दे इश्क़, ज़हन के किसी कोने में तुमने आके क्यों इसे जगा दिया तुम्हें जानने से पहले जाना न था दर्द मैंने मेरे मेहरबां ये कैसा मर्ज़ लगा दिया मेरी इसरारे वफा से जब आ गये आज़िज़ वो उन्होने मुझे ही बेवफा बता दिया
मेरे हिस्से में तो उनकी बेरुखी भी न आई खुशकिस्मत हैं वो जिनकी मुहब्बत को ठुकरा दिया तूने
सांसें सीमित हैं धड़कनें हैं बहुत अल्प तिस पर जानलेवा तुम्हारा ये दृढ़संकल्प
तुम्हें निमंत्रित करने की
लुभाने की चाह मन में
अनगिनत बार उठी है
मैं चाह को भी तेरी तरह
चाह कर ही रह जाता हूं ...
पीर हृदय में बिन बुलाई आ बसती है
अब तो पीर ही मुझे लुभा-लुभा के ताना कसती है
किसी और को न बुलाना
ये दिल तुम्हारा अब मेरी बस्ती है