ख्वाब
सी नाजुक है वो
छूने से डर लगता है
गो मेरी महबूब है वो
छूने से डर लगता है
प्यार के महज़ ज़िक़्र से
अपने रुखसार छुपा ले है वो
ऐसे लाला-ए-रुख को
छूने से डर लगता है
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हर बार उसके दर से
ये सोच-सोच भारी मन से
लौटा हूं मैं
कहते हैं मंदिर को
घर नहीं बनाया करते